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जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म का पारस्परिक प्रभाव
रखने के लिये एक ओर समाज जीवन में अपने वर्चस्व को स्थापित रखना चाहा, तो दूसरी ओर धर्म को कर्मकाण्ड और जटिल विधि-विधानों की औपचारिकता में उलझा दिया। परिणास्वरूप ऊँच-नीच का भेद-भाव, जातिवाद और कर्मकाण्ड का विकास हुआ। किन्तु उसके विपरीत निवर्तक धर्म ने संयम, ध्यान और तप की एक सरल साधना-पद्धति का विकास किया और वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद और ब्राह्मण-संस्था के वर्चस्व का विरोध किया। उनमें ब्राह्मण संस्था के स्थान पर श्रमण संघों का विकास हुआ, जिसमें सभी जाति और वर्ग के लोगों को समान स्थान मिला। राज्य संस्था की दृष्टि से जहाँ प्रवर्तक धर्म राजतंत्र और अन्याय के प्रतिकार के हेतु संघर्ष की नीति के समर्थक रहे, वहाँ निवर्तक धर्म जनतन्त्र और आत्मोत्सर्ग के समर्थक रहे ।
संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा
यद्यपि उपरोक्त आधार पर हम प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेयों को समझ सकते हैं किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये यह असम्भव था कि वे एक-दूसरे के प्रभाव से अछूती रहें। अतः जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा ( निवर्तक धर्म - परम्परा ) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्म-परम्परा के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है । अतः आज के युग में कोई धर्म - - परम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक प्रवृत्तिमार्ग की ।
वस्तुतः निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक । मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ योजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग मरीचिका में जीना होगा । वस्तुतः आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवनशैली खोजें, जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक सन्त्रास के मुक्ति दिला सके। इस प्रकार इन दो भिन्न संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था।
भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं । प्रवर्तक धारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण ईशावास्योपनिषद् और
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