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श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ : एक विमर्श
- प्रो. सागरमल जैन
सामान्यतया जैन विद्या के विद्वानों एवं शोधकर्ताओं की यह स्पष्ट अवधारणा है कि मूलसंघ और माथुरसंघ का सम्बन्ध जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा से ही है, क्योंकि जैन अभिलेखों एवं साहित्यिक स्रोतों में मूलसंघ एवं माथुरसंघ के उल्लेख सामान्यतया दिगम्बर परम्परा के साथ ही पाये जाते हैं। संयोग से लेखक को जैनविद्या संस्थान की बैठक में लखनऊ जाने का प्रसंग आया और वहाँ उसे डॉ. शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी आदि के सहयोग से मथुरा की जैन मूर्तियों के संग्रह को देखने का अवसर मिला, वहाँ जब उसने मथुरा से प्राप्त ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी की पद्मासन मुद्रा में लगभग 5 फीट ऊंची विशालकाय लेखयुक्त तीन जिन प्रतिमायें देखी, तो उसे एक सुखद आश्चर्य हुआ। क्योंकि इन तीन प्रतिमाओं पर श्वेताम्बर मूलसंघ और श्वेताम्बर माथुरसंघ के उल्लेख पाये जाते हैं जो कि अत्यन्त विरल है। इसके पूर्व तक लेखक की भी यह स्पष्ट अवधारणा थी कि श्वे. परम्परा में किसी भी काल में मूलसंघ और माथुरसंघ का अस्तित्व नहीं रहा है। अतः उसने ध्यानपूर्वक इन लेखों का अध्ययन करना प्रारंभ किया। सर्वप्रथम लखनऊ म्यूजियम के उस रिकार्ड को देखा गया जिसमें इन मूर्तियों का विवरण था। यह रिकार्ड जीर्ण-शीर्ण एवं टंकित रूप में उपलब्ध है। रिकार्ड को देखने पर ज्ञात हुआ कि उसमें J 143 क्रम की पार्श्वनाथ की प्रतिमा के विवरण के साथ-साथ अभिलेख की वाचना भी रोमन अक्षरों में दी गई है जिसका देवनागरी स्पान्तरण इस प्रकार है--
संवत 1036 कार्तिकशुक्लाएकादश्यां श्रीश्वेताम्बरमूलसंघेन पश्चिम चतु (श्थी),
कयं श्रीदेवनिर्मिता प्रतिमा प्रतिस्थापिता। दूसरी J144 क्रम की प्रतिमा के नीचे जो अभिलेख है उसका वाचन इस प्रकार दिया गया है--
श्वेताम्बर.... माथुर...... देवनिम्मिता...... प्रतिस्थापिता। तीसरी 1 145 क्रम की मूर्ति पर जो अभिलेख अंकित है उसकी वाचना निम्नानुसार है --
संवत् 1134 श्रीश्वेताम्बर श्रीमाथुरसंघ श्रीदेवतेति विनिर्मिताप्रतिमाकृत
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