Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 3
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 203
________________ षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या - प्रो. सागरमल जैन पजीवनिकाय की अवधारणा जैनधर्म-दर्शन की प्राचीनतम अवधारणा है। इसके उल्लेख हमें प्राचीनतम जैन आगमिक ग्रन्थों यथा -.. आचारांग', ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि में उपलब्ध होते हैं। यह सुस्पष्ट तथ्य है कि निर्गन्थ परम्परा में प्राचीनकाल से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि को जीवन युक्त माना जाता रहा है। यद्यपि वनस्पति और द्रीन्द्रिय आदि प्राणियों में जीवन की सत्ता तो सभी मानते हैं, किन्तु पृथ्वी जल, अग्नि और वायु भी सजीव हैं --- यह अवधारणा जैनों की अपनी विशिष्ट अवधारणा है। यहाँ हमे यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पृथ्वी, जल, वायु आदि में सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति को स्वीकार करना एक अलग तथ्य है और पृथ्वी, जल आदि को स्वतः सजीव मानना एक अन्य अवधारणा है। जैन परम्परा केवल इतना ही नहीं मानती है कि पृथ्वी, जल आदि में जीव होत हैं अपितु वह यह भी मानती है कि ये स्वयं भी जीवन-युक्त या सजीव हैं। इस सन्दर्भ में आचारांग में स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि पृथ्वी, जल, वायु आदि के आश्रित होकर जो जीव रहत हैं, वे पृथ्वीकायिक, अपकायिक आदि जीवों से भिन्न हैं। यद्यपि पृथ्वीकायिक, अपकायिक जीवों की हिंसा होने पर इनकी हिंसा भी अपरिहार्य रूप से होती है। आचारांग के प्रथम अध्ययन के द्वितीय से सप्तम उद्देशक तक प्रत्येक उद्देशक में पृथ्वी आदि पजीवनिकायों की हिंसा के स्वरूप, कारण और साधन अर्थात शस्त्र की चर्चा हमें उपलब्ध होती है। आचारांग ऋषिभासित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि में पट्जीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति और उस -- ये जीवों के छः प्रकार माने गये हैं, किन्तु इन षट्जीवनिकायों में कौन स है और कौन स्थावर है ? इस प्रश्न को लेकर प्राचीनकाल से ही विभिन्न अवधारणाएँ जैन परम्परा में उपलब्ध होती हैं। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में पी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को सामान्यतया स्थावर माना जाता है। पंचस्थावरों की यह अवधारणा अब सर्व स्वीकत है। दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का जो पाठ प्रचलित है उसमें तो पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति-- इन पाँचों को स्पष्ट रूप से स्थावर कहा गया है। किन्तु प्राचीन श्वेताम्बर मान्य आगम आचारांग, उत्तराध्ययन आदि की तथा तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर सम्मत पाठ और तत्त्वार्थभाष्य की स्थिति कुछ भिन्न है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय की स्थिति भी पंचस्थावरों की प्रचलित सामान्य अवधारणा से कुछ भिन्न ही प्रतीत होती है। यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम की धवला टीका में इन दोनों के समन्वय का प्रयत्न हुआ है। वस और स्थावर के वर्गीकरण को लेकर जैन परम्परा के इन प्राचीन स्तर के आगमिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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