Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 3
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ ऋषिभाषित : एक अध्ययन * प्रो० सागरमल जैन ऋषिभाषित (इसिभासियाइं) अर्धमागधी जैन आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है । वर्तमान में जैन आगमों के वर्गीकरण की जो पद्धति प्रचलित है, उसमें इसे प्रकीर्णक ग्रन्थों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है । दिगम्बर परम्परा में १२ अंग और १४ अंगबाह्य ग्रन्थ माने गये हैं किन्तु उनमें ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है । श्वेताम्बर जैन परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी, जो ३२ आगम मानते हैं, उनमें भी ऋषिभाषित का उल्लेख नहीं है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ११ अंग, १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, २ चूलिकासूत्र और १० प्रकीर्णक, ऐसे जो ४५ आगम माने जाते हैं, उनमें भी १० प्रकीर्णकों में हमें कहीं ऋषिभाषित का नामोल्लेख नहीं मिलता है । यद्यपि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो कालिक सूत्रों की गणना की गयी है उनमें ऋपिभाषित का उल्लेख है । १ आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अंग-बाह्य ग्रन्थों की जो सूची दी है उसमें सर्वप्रथम सामायिक आदि ६ ग्रन्थों का उल्लेख है और उसके पश्चात दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा (आचारदशा), कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का उल्लेख है । हरिभद्र आवश्यनियुक्ति की वृत्ति में एक स्थान पर इसका उल्लेख उत्तराध्ययन के साथ करते हैं। और दूसरे स्थान पर 'देविन्दत्थओ' नामक प्रकीर्णक के साथ । हरिभद्र के इस भ्रम का कारण यह हो सकता है कि उनके सामने ऋषिभाषित (इसिभासियाइं) के साथ-साथ ऋषिमण्डलस्तव (इसिमण्डलत्थउ) नामक ग्रन्थ भी था, जिसका उल्लेख आचारांग-चूर्णि में है और उनका उद्देश्य ऋषिभाषित को उत्तराध्यपन के साथ और ऋषिमण्डलस्तव को देविन्दत्यओ' के साथ जोड़ने का होगा। यह भी स्मरणीय है कि इसिमण्डल (ऋषिमण्डल) में न केवल ऋपिभाषित के अनेक ऋषियों का उल्लेख है, अपितु उनके इसिभासियाइं में जो उपदेश और अध्ययन हैं उनका भी संकेत है । इससे यह भी निश्चित होता है कि इसिमण्डल में तो क्रम और नामभेद के साथ ऋषिभाषित के लगभग सभी ऋषियों का उल्लेख मिलता है । इसिमण्डल का उल्लेख आचारांग-चूर्णि इसिणामकित्तणं इसिमण्डलत्थउ' (पृष्ठ ३८४) में होने से यह निश्चित ही उसके पूर्व (७वीं शती के पूर्व) का ग्रन्थ है । विद्वानों को इस सम्बन्ध में विशेष रूप से चिन्तन करना चाहिए । इसिमण्डल के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि वह तपागच्छ के धर्मघोषसूरि की रचना है ; किन्तु मुझे यह धारणा भ्रान्त प्रतीत होती है, क्योंकि ये १४ वीं शती के आचार्य हैं । वस्तुत: इसिंमण्डल की भाषा से भी ऐसा लगता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है और इसका लेखक ऋषिभाषित का ज्ञाता है । आचार्य जिनप्रभ ने विधिमार्गप्रपा में तप आराधना के साथ आगमों के स्वाध्याय की जिस विधि का वर्णन किया है, उसमें प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित का उल्लेख करके प्रकीर्णक अध्ययनक्रम विधि को समाप्त किया है।५ इसप्रकार वर्गीकरण की प्रचलित पद्धति में ऋषिभाषित की गणना प्रकीर्णक सूत्रों में की जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228