Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 3
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 200
________________ १६३ स्थापना भद्रबाहु द्वितीयने की मूझे निराधार प्रतीत होती है। दक्षिण भारत का निग्रन्थ संघ तो भद्रबाहु प्रथम की परम्परा का प्रतिनिधि है -- चाहे भद्रबाहु प्रथम दक्षिण गये हो या नहीं गये हो किन्तु उनकी परम्परा ईसा पू. तीसरी शती में दक्षिण भारत में पहुंच चुकी थी, इसके अनेक प्रमाण भी हैं। भद्रबाहु प्रथम के पश्चात् लगभग द्वितीय शती में एक आर्य भद्र हुए हैं, जो नियुक्तियों के कर्ता थे और सम्भवतः ये उत्तर भारत के अचेल पक्ष के समर्थक रहे थे उनके नाम से भद्रान्वय प्रचलित हुई जिसका उल्लेख उदयगिरि (विदिशा) में मिलता है। मेरी दृष्टि में मूलगण भद्रान्वय, आर्यकुल आदि का सम्बन्ध इसी उत्तर भारत की अचेल धारा से है - जो आगे चलकर यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई। दक्षिण में पहुंचने पर यह धारा अपने को मूलगण या मूलसंघ कहती हो। यह आगे चलकर श्री वृक्षमूल गण, पुन्नागवृक्षमूलगण, कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण आदि अनेक गणों में विभक्त हुई फिर भी सबने अपने साथ मूलगण शब्द कायम रखा। जब इन विभिन्न मूल गणों को कोई एक संयुक्त नाम देन का प्रश्न आया तो उन्हें मूलसंघ कहा गया। कई गणों द्वारा परवर्तीकाल में संघ नाम धारण करने अनेक प्रमाण अभिलखों में उपलब्ध है। पुनः यापनीय ग्रन्थों के साथ लगा हुआ 'मूल विशेषण - जैसे मूलाचार, मूलाराधना आदि भी इसी तथ्य का सूचक है कि 'मूलसंघ शब्द का सम्बन्ध यापनीयों से रहा है। अतः नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं में उल्लेखित मूलसंघ-यापनीय परम्परा का ही पूर्व स्प है उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की यह धारा जब पहले दक्षिण भारत में पहुंची तो मूलसंघ के नाम से अभिहित हुई और उसके लगभग 100 वर्ष पश्चात् इसे यापनीय नाम मिला। हम यह भी देखते हैं कि उसे यापनीय नाम मिलते ही अभिलेखों से मूलसंघ नाम लुप्त हो जाता है और लगभग चार सौ पचास वर्षों तक हमें मूलसंघ का कहीं कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। नोणमंगल की ई. सन् 425 की ताम्र पट्टिकाओं के पश्चात् कोन्नूर के ई. सन् 860 के अभिलेख में पुनः मूलसंघ का उल्लेख देशीयगण के साथ मिलता है। ज्ञातव्य है कि इस अभिलेख में मूलसंघ के साथ देशीयगण और पुस्तकगच्छ का उल्लेख है किन्तु कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहले यह लेख ताम्रपट्टिका पर था बाद में 12वीं शती में इसमें कुछ अंश जोड़कर पत्थर पर अंकित करवाया गया इस जुड़े हुए अंश में ही कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है। इसके दो सौ वर्ष पश्चात् से यापनीयगण और द्राविड़ आदि अन्य गण सभी अपने को मूलसंघीय कहते प्रतीत होते हैं। इतना निश्चित है कि मूलसंघ के साथ कुन्दकुन्दान्वय सम्बन्ध भी परवर्ती काल में जुड़ा है यद्यपि कुन्दकुन्दान्वय का सर्व प्रथम अभिलेखीय उल्लेख ई. सन् 797 और 802 में मिलता है, किन्तु इन दोनों लेखो में पुस्तकगच्छ और मूलसंघ का उल्लेख नहीं है। आश्चर्य है कि साहित्यिक स्रोतों में तो दसवीं शती के पूर्व मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय का कहीं कोई उल्लेख १. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ३, भूमिका, पृ. २३ । २. वही, भाग २, लेखक्रमांक ७६१ । ३. वही, लेखक्रमांक १२२ एव १२३ (मन्ने के ताम्रपत्र)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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