Book Title: Sagar Jain Vidya Bharti Part 3
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 196
________________ १८६ किया और अन्य प्रतिमाओं में 'माथुर' शब्द की उपस्थिति के आधार पर अपनी वाचना में 'माथुर शब्द को कोष्ठकान्तगत रखकर माथुर पाठ की संभावना को सूचित किया। यह सत्य है कि इस प्रतिमा के लगभग 100 वर्ष पश्चात् की दो प्रतिमाओं में माथुर शब्द का स्पष्ट उल्लेख होने से उनका झुकाव माथुर शब्द की ओर हुआ है किन्तु मुझे जितनी आपत्ति 'मूल पाठ को मानने में है उससे अधिक आपत्ति उनके 'माथुर' पाठ को मानने में है क्योंकि 'मूल पाठ'मानने में तो केवल 'ऊ की मात्रा का अभाव प्रतीत होता है जबकि माथुर पाठ मानने में आ की मात्रा के अभाव के साथ-साथ 'र' का भी अभाव खटकता है। इस सम्बन्ध में अधिक निश्चितता के लिए मैं डॉ. शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी से सम्पर्क कर रहा हूँ और उनके उत्तर की प्रतीक्षा है। साथ ही स्वयं भी लखनऊ जाकर उस प्रतिमा लेख का अधिक गम्भीरता से अध्ययन करने का प्रयास करूंगा और यदि कोई स्पष्ट समाधान मिल सका तो पाठकों को सूचित करूँगा। मुझे दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि आदरणीय प्रो.के.डी. बाजपेयी का स्वर्गवास हो गया है। फिर भी पाठकों को स्वयं जानकारी प्राप्त करने के लिए यह सूचित कर देना आवश्यक समझता हूँ कि यह J 143 क्रम की प्रतिमा लखनऊ म्यूजियम के प्रवेश द्वार से संलग्न प्रकोष्ठ के मध्य में प्रदर्शित है। इसकी ऊंचाई लगभग 5 फीट है। J143 क्रम की प्रतिमा के अभिलेख के 'मूल और 'माथुर शब्द के वाचन के इस विवाद को छोड़कर तीनों प्रतिमाओं के अभिलेखों के वाचन में किसी भ्रांति की संभावना नहीं है। उन सभी प्रतिमाओं में श्वेताम्बर शब्द स्पष्ट है। माथुर शब्द भी अन्य प्रतिमाओं पर स्पष्ट ही है, फिर भी यहाँ इस सम्बन्ध में उठने वाली अन्य शंकाओं पर विचारकर लेना अनुपयुक्त नहीं होगा। यह शंका हो सकती है कि इनमें कहीं श्वेताम्बर शब्द को बाद में तो उत्कीर्ण नहीं किया गया है ? किन्तु यह संभावना निम्न आधारों पर निरस्त हो जाती है :1. ये तीनों ही प्रतिमाएं मथुरा के उत्खनन के पश्चात से शासनाधीन रही हैं अतः उनके लेखों में परवर्ती काल में किसी परम्परा द्वारा परिवर्तन की संभावना स्वतः ही निरस्त हो जाती है। पुनः 'श्वेताम्बर मूल संघ और माथुर संघ तीनों ही शब्द अभिलेखों के मध्य में होने से उनके परवर्तीकाल में उत्कीर्ण किये जाने की आशंका भी समाप्त हो जाती है। 2. प्रतिमाओं की रचनाशैली और अभिलेखों की लिपि एक ही काल की है। यदि लेख परवर्ती होते तो उनकी लिपि में स्वाभाविक रूप से अन्तर आ जाता। 3. इन प्रतिमाओं के श्वेताम्बर होने की पुष्टि इस आधार पर भी हो जाती है कि प्रतिमा क्रम J143 के नीचे पादपीठ पर दो मुनियों का अंकन है, उनके पास मोरपिच्छी के स्थान पर श्वे. परम्परा में प्रचलित ऊन से निर्मित रजोहरण प्रदर्शित है। 4. उत्खनन से यह भी सिद्ध हो चुका है कि मथुरा के स्तूप के पास ही श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अलग मन्दिर थे। जहाँ दिगम्बर परम्परा का मन्दिर पश्चिम की ओर था, वहाँ श्वेताम्बर मन्दिर स्तूप के निकट ही था। 5. इन तीनों प्रतिमाओं के श्वे. होने का एक आधार यह है कि तीनों ही प्रतिमाओं में श्री देवनिर्मित शब्द का प्रयोग हुआ है। श्वेताम्बर साहित्यिक स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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