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षड्दर्शन समुच्चय की समीक्षा
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कार्य पंडित महेन्द्रकुमार आचार्य के द्वारा किया गया। सम्भवत: उनके पूर्व और उनके पश्चात् भी आज तक इस ग्रन्थ का ऐसा अन्य कोई प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित नहीं हो पाया है।
अनेक प्रतियों से पाठों का मिलान करके और जिस ढंग से मूल-ग्रन्थ को सम्पादित किया गया था, वह निश्चित ही एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य रहा होगा जिसमें पंडित जी को अनेक कष्ट उठाने पड़े होंगे। दुर्भाग्य से इस ग्रन्थ पर उनकी अपनी भूमिका न हो पाने के कारण हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि मूलप्रतों को प्राप्त करके अथवा एक प्रकाशित संस्करण के आधार पर इस ग्रन्थ को सम्पादित करने में किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। इस ग्रन्थ के सन्दर्भ में उनकी पाण्डुलिपि से जो सूचना मिलती है, उससे मात्र इतना ही ज्ञात होता है कि उन्होंने षड्दर्शनसमुच्चय-मूल और गुणरत्न-टीका का अनुवाद २५/६/१९४० को ४ बजे पूर्ण किया था, किन्तु उनके संशोधन और उस पर टिप्पण लिखने का कार्य वे अपनी मृत्यु जून १९५९ के पूर्व तक करते रहे। इससे यह स्पष्ट पता चलता है कि उन्होंने इस ग्रन्थ को अन्तिम रूप देने में पर्याप्त परिश्रम किया है। खेद तो यह भी है कि वे अपने जीवनकाल में न तो इसकी भूमिका लिख पाए और न इसे प्रकाशित रूप में देख ही पाए।
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होकर यह ग्रन्थ जिस रूप में हमारे सामने आया उससे उनके श्रम एवं उनकी प्रतिभा का अनुमान किया जा सकता है। यह तो एक सुनिश्चित तथ्य है कि संस्कृत की अधिकांश टीकाएँ मूलग्रन्थ से भी अधिक दुष्कर हो जाती हैं और उन्हें पढ़कर समझ पाना मूलग्रन्थ की अपेक्षा भी कठिन होता है। अनेक संस्कृत ग्रन्थों की टीकाओं, विशेषरूप से जैनदर्शन से सम्बन्धित ग्रन्थों की संस्कृत टीकाओं के अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि टीकाओं का अनुवाद करना अत्यन्त दुरूह कार्य है। सामान्यतया यह देखा जाता है कि विद्वज्जन अनुवाद में ग्रन्थ के मूलशब्दों को यथावत् रखकर अपना काम चला लेते हैं किन्तु इससे विषय की स्पष्टता में कठिनाई उत्पन्न होती है। मक्षिका स्थाने मक्षिका रखकर अनुवाद तो किया जा सकता है किन्तु वह पाठकों के लिए बोधगम्य और सरल नहीं होता। पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य की अनुवाद शैली का यह वैशिष्ट्य है कि इनका अनुवाद मूलग्रन्थ और उसकी टीका की अपेक्षा अत्यन्त सरल और सुबोध है। दर्शन के ग्रन्थ को सरल और सुबोध ढंग से प्रस्तुत करना केवल उसी व्यक्ति के लिये सम्भव होता है जो उन ग्रन्थों को आत्मसात् कर उनके प्रस्तुतीकरण की क्षमता रखता हो। जिसे विषय-ज्ञान न हो वह चाहे कैसा ही भाषाविद् हो, सफल अनुवादक नहीं हो सकता।
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