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११६ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न क्योंकि स्त्री निर्वस्त्र नहीं हो सकती है। स्त्री का महाव्रतारोपण अर्थात् प्रव्रज्या क्यों नहीं हो सकती इसके सन्दर्भ में यह कहा गया है कि इसके कुक्षि ( गर्भाशय ), नाभि और स्तन में सूक्ष्म जीव होते हैं, इसलिये उसकी प्रव्रज्या कैसे हो सकती है? १० पुन: यह भी कहा गया है कि उसमें मन की पवित्रता नहीं होती, वे अस्थिरमना होती हैं तथा उनमें रजस्राव होता है इसलिये उनका ध्यान चिन्तारहित नहीं हो सकता।
___इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में ही स्त्रीमुक्ति का तार्किक खण्डन उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दों में दिगम्बर परम्परा में स्त्रीमुक्ति का तार्किक निषेध छठी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व इस परम्परा में इस सम्बन्ध में क्या मान्यता थी, यह जानने का हमारे पास कोई स्रोत नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में सातवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति के इस तार्किक निषेध का कहीं कोई खण्डन किया गया हो, ऐसी सूचना भी उपलब्ध नहीं होती। सम्भवत: सातवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर आचार्य किसी ऐसी परम्परा से अवगत ही नहीं थे जो स्त्रीमुक्ति का निषेध करती थी। स्त्रीमुक्ति के निषेधक तर्कों का सर्वप्रथम उत्तर श्वेताम्बरों ने नहीं, अपितु अचेलकत्व की समर्थक यापनीय परम्परा ने ही दिया। चूँकि कुन्दकुन्द दक्षिण में हुए थे और यापनीय भी दक्षिण में ही उपस्थित थे, अत: पहली चोट भी उन पर ही हुई थी और पहला प्रत्युत्तर भी उन्हें ही देना पड़ा था। सर्वप्रथम लगभग सातवीं शती में यापनीयों ने इसका प्रत्युत्तर दिया। यापनीय सम्प्रदाय के इन तर्कों का अनुसरण परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों ने भी किया। श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम हरिभद्र ने आठवीं शती में ललितविस्तरा में स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया है, किन्तु उन्होंने भी अपनी ओर से कोई तर्क न देकर इस सम्बन्ध में यापनीयतन्त्र नामक ( वर्तमान में अनुपलब्ध ) किसी यापनीय प्राकृत ग्रन्थ को उद्धृत मात्र किया है। इससे ऐसा लगता है कि कुन्दकुन्द ने लगभग छठी शताब्दी में स्त्रीमुक्ति के निषेध के सन्दर्भ में जो तर्क दिये थे, उसका खण्डन यापनीयों ने लगभग सातवीं शताब्दी में किया और यापनीयों के तर्कों को गृहीत करके ही आठवीं शताब्दी से श्वेताम्बर परम्परा में भी स्त्रीमुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा का खण्डन किया जाने लगा। यापनीयतन्त्र के पश्चात् स्त्रीमुक्ति के समर्थन में सर्वप्रथम यापनीय आचार्य शाकटायन ने लगभग नवीं शती में 'स्त्री-निर्वाणप्रकरण' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की और उस पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखी। इसके बाद दोनों ही परम्पराओं में स्त्रीमुक्ति के पक्ष एवं विपक्ष में लिखा जाने लगा। स्त्रीमुक्ति के पक्ष में श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र ( आठवीं शती ) के पश्चात् अभयदेव ( ई० सन् १००० ), शान्तिसूरि ( ई० सन् ११२० ), मलयगिरि
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