Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 11
________________ यदि वर्षा आती है तो वह बीज हजार-हजार दाने के रूप में समुत्पन्न हो जाता है। हृदय रूपी खेत में श्रद्धा का बीज बपन करने के पश्चात यदि तप की वर्षा होती है तो वह बीज हजार-हजार दाने के रूप में प्रस्फुटित हो जाता है। महात्मा गाँधी ने लिखा है कि श्रद्धा से मानव पहाड़ों का उल्लंघन कर सकता है, श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं है। श्रद्धा ही जिन्दगी का सूरज है। हमारी श्रद्धा अखण्ड बत्ती जैसी होनी चाहिए, वह हमें भी प्रकाश दे और आसपास भी प्रकाश करे। जिसमें शुद्ध श्रद्धा है, उसकी बुद्धि तेजस्वी रहती है ।। श्रद्धा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-श्रत्-- सत्यं दधातीति श्रद्धा-जो सत्य को धारण करती है, वह श्रद्धा है। श्रद्धा में ही सत्य को धारण करने की अपूर्व शक्ति है । जब तक अन्तःकरण में श्रद्धा नहीं, तब तक सत्य के संदर्शन नहीं हो सकते। श्रद्धा, प्रतीति, विश्वास, रुचि, आस्था, निष्ठा, सम्यग्दर्शन, भरोसा आदि शब्द श्रद्धा के ही पर्यायवाचक हैं । जैनागमों में जीवादि पदार्थों के स्वरूप को देखना, जानना, श्रद्धा करना दर्शन माना है। तत्वार्थसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शन शब्द तत्वश्रद्धा के अर्थ में व्यवहत हुआ है। श्रद्धा अन्धश्रद्धा न होकर वह ज्ञानात्मक है। यह सम्यक्श्रद्धा ही जैन आचार्य-व्यवस्था का मूलाधार है। आचार्य देववाचक ने नन्दी सूत्र में सम्यग्दर्शन को संघ रूपी सुमेरु पर्वत की अत्यन्त सुदृढ़ और गहन-भू-पीठिका (आधारशिला) कहा है। जिस पर ज्ञान और चारित्र्य रूपी उत्तम धर्म की मेखला यानि पर्वतमाला अवस्थित है। जैन साधना में सम्यश्रद्धा को ही मुक्ति का अधिकार पत्र कहा है । क्योंकि, बिना श्रद्धा के सम्यग्ज्ञान नहीं होता । सम्यकज्ञान के अभाव में सम्यक आचरण नहीं होता। सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति नहीं होती। सूत्रकृतांग सूत्र में वर्णन है-एक व्यक्ति महा --सुत्तनिपात (१/४/२ -खंड ४१ पृ. ४४२ १ श्रद्धा बीजं तपो वुट्ठि २ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय ३ अभिधान राजेन्द्र कोश खण्ड ५, पृ. २४२५ ४ तत्त्वार्थ सूत्र १/२ ५ उत्तराध्ययन २८/३५ ६ नन्दी सूत्र १/१२ ७ उत्तराध्ययन २८/३० ( ८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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