Book Title: Saddha Param Dullaha
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 12
________________ मनीषी है, भाग्यवान और पराक्रमी भी है तथापि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है, उसमें सम्यक् श्रद्धा का अभाव है तो उसके द्वारा किया हुआ दान तथा उग्र तप की साधना आदि अशुद्ध हैं । सही श्रद्धा के अभाव में वह पुरुषार्थ मुक्ति की ओर न ले जाकर बन्धन की ओर ले जाता है । जिस साधक में सम्यक् श्रद्धा का प्राधान्य है, उसमें फलाकांक्षा नहीं होती । वह निष्काम साधना करता है । अंगुत्तरनिकाय में तथागत बुद्ध ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मिथ्यादृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम्यक् दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है । 2 श्रीमद्भगवद्गीता में इस सत्य तथ्य को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-व्यक्ति की जिस प्रकार श्रद्धा होती है, उसका जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही वह बन जाता है । सम्यक् श्रद्धा आध्यात्मिक जीवन का प्राण है । जैसे चेतनारहित शरीर शव है, वैसे ही सम्यक् श्रद्धा रहित व्यक्ति चलता-फिरता शव ही है । जैसे शव का स्थान घर नहीं, श्मशान है, वह त्याज्य है, वैसे ही आध्यात्मिक जगत में भी श्रद्धारहित साधना शव की तरह त्याज्य है । जैसी श्रद्धा होगी, वैसा ही पवित्र चरित्र का निर्माण होगा । अश्रद्धा पतन की ओर ले जाती है और सही श्रद्धा जीवनोत्थान की ओर हमें गति और प्रगति करने के लिए उत्प्र ेरित करती है । बौद्ध परम्परा में समाधि, चित्त और श्रद्धा का प्रयोग सामान्य रूप से एक ही अर्थ में हुआ है। श्रद्धा से चित्त में विकल्प नहीं होते । यदि पहले विकल्प उत्पन्न हुए हैं तो वे भी श्रद्धा के उत्पन्न होने पर समाप्त हो जाते हैं । समाधि में भी चित्त में विकल्प नहीं होते अतः दोनों को एक ही माना है । श्रद्धा और समाधि - ये दोनों चित्त की अवस्थाएँ हैं इसलिए श्रद्धा और समाधि के स्थान पर चित्त का प्रयोग भी मिलता है । चूंकि चित्त की एकाग्रता ही समाधि है और चित्त की भावपूर्ण अवस्था ही श्रद्धा है । इसलिए वित्त, समाधि और श्रद्धा एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति है । अपेक्षाभेद से उनके समाधिचित्त की शांत अवस्था है । जैन दर्शन में १ सूत्रकृतांग १ / ८ / २२–२३ २ अंगुत्तरनिकाय १०/१२ ३ श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव स । Jain Education International अर्थों में भी पृथकता है । श्रद्धा का अर्थ देव, गुरु, — वेदव्यास ( महाभारत भीष्म पर्व ४१ / ३ ), गीता १७ / ३ ( ε ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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