________________
इन परपदार्थों को मान लिया कि ये मेरे हैं, तो दुःख होगा और यदि यह समझ में आ जाये कि ये मेरे नहीं हैं, तो दुःख नहीं होगा । तो ऐसा ही समझिये कि हम-आपको उन गाँव की स्त्रियों की भांति इस गृहस्थी के बीच काम करना पड़ रहा है, पर इन नटखटों में पड़ना मेरा कर्तव्य नहीं है। यदि हम अपने आपको सबसे भिन्न समझेंगे, तो शरीरादि में अपनापना, अहम् मर जायेगा और जिसका अहम् चला गया, उसका संसार ही चला जायेगा। संसार में जो रस है, वह अहम्पने का और मेरेपने का ही तो है । जिसका अहम्पना और मेरापना चला गया, उसके लिये संसार में कोई रस नहीं रहता ।
सम्यग्दर्शन होने पर शरीर में अपनापना तो नहीं रहता, परन्तु शरीर में स्थित है। राग-द्वेष में अपनापना तो नहीं रहता, परन्तु राग-द्वेष भाव अभी भी हैं। जैसे- कुम्हार ने चाक से डंडा तो हटा लिया, परन्तु चाक अभी तक चल रहा है । अथवा पेड़ को तो काट डाला है, परन्तु पत्ते अभी हरे हैं। बच्चे का पालन तो हो रहा है, पहले माँ बनकर था, अब धाय की तरह है । घर में तो रह रहा है, परन्तु अब घर नहीं है, धर्मशाला है। व्यापार तो कर रहा है, किन्तु स्वामित्व अब नहीं रहा। सम्यग्दर्शन की अचिंत्य महिमा है । सम्यग्दर्शन होने पर रुचि संसार से हटकर मोक्ष की ओर हो जाती है। सम्यग्दृष्टि घर में रहकर या घर का त्याग कर श्रावक धर्म की साधना करता है और सदा भावना भाता है कि कब मुनि बनकर पूर्ण रत्नत्रय को धारण करूँ ।
एक गाँव के बाहर किसी सन्यासी की कुटिया थी । गाँव के लोग उसके पास अपनी शंकाओं का समाधान करने आते थे । एक दिन एक जिज्ञासु व्यक्ति सन्यासी से पूछने लगा - क्या मोक्ष प्राप्ति के लिये घर को छोड़ना जरूरी है? सन्यासी ने कहा कि कोई जरूरी नहीं है। यदि घर छोड़ना जरूरी होता तो राजा जनक घर में रहते हुये भी विदेही कैसे कहे जाते ? चक्रवर्ती सम्राट भरत ने भी घर में रहकर ही साधना की थी ।
कुछ दिनों बाद एक दूसरा जिज्ञासु सन्यासी के चरणों में पहुँचा और पूछने लगा-महाराज! क्या मोक्ष की प्राप्ति के लिये घर-बार छोड़ना आवश्यक नहीं है? सन्यासी ने कहा कि बहुत आवश्यक है, बहुत जरूरी है। यदि घर का DU47 S