________________
जीवन : एक परिचय
विजयमुनि साहित्यरल
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
++
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
+
युग-पुरपो का जीवन सरिता के उस उद्गम-स्रोत के समान होता है, जो आरम्भ मे तो लघु और छोटा होता है, किन्तु आगे बढकर अन्य जल-स्रोतो का सहयोग पाकर विशाल और विराट् होकर, अन्त मे सागर मे पहुँच कर, असीम और अनन्त हो जाता है । युग-पुरुप भी प्रारम्भ मे लघु, फिर विराट और अन्त मे अनन्त हो जाता है । क्योकि उनकी वाणी मे युग की वाणी बोलती है, उसके कर्म मे युग का कर्म क्रिया-शोल बनता है और उसके चिन्तन मे युग का चिन्तन चलता है । अत युग-पुरुप अपने युग का प्रतिनिधित्व करता है, जनता का नेतृत्व करता है।
यहाँ पर मैं एक ऐसे ही युग-पुरुप का, एव जैन जगत की विमल विभूति का जीवन परिचय दे रहा हूँ, जिसने अपने युग के जन-जीवन को नया विचार, नयी वाणी और नया कर्म दिया। जिसने अपने युग की जनता को भोग-मार्ग से हटा कर योग-मार्ग पर लगाया, जिसने जन-मन के अज्ञान को मिटा कर ज्ञान का विमल प्रकाश दिया और जिसने जन-जीवन मे, सयम और तप की ज्योति जगादी । वह युग-पुरुप कौन थे ? वे थे-गुरुदेव श्रद्धेय रत्नचन्द्र जी महाराज । जन्म-भूमि
वीर-भूमि राजस्थान के जयपुर राज्य में एक तातीजा ग्राम था, जिसमे गुर्जर राजपूतो की काफी आवादी थी । इतिहासकारो की दृष्टि मे गुर्जर राजपूत गुर्जर प्रतिहार, क्षत्रिय के वशज है । राजस्थान में आज भी इन लोगो की काफी संख्या है । किसी युग में उत्तरी भारत और पूर्वी भारत के कुछ भागो मे इनका विशाल साम्राज्य था । परन्तु दावी सदी के वाद निरन्तर अरखो का और मुगलो का आक्रमण