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संस्कृति का स्वरूप
डा. वासुदेवशरण अग्रवाल काशी हि विवि + + + + ++-+-+-+-+-+++ +
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सस्कृति की प्रवृत्ति महाफल देने वाली होती है। सास्कृतिक कार्य के छोटे-से बीज से बहुत फल देने वाला बडा वृक्ष बन जाता है । सास्कृतिक कार्य कल्पवृक्ष की तरह फलदायी होते है । अपने ही जीवन की उन्नति, विकास और आनन्द के लिए हमे अपनी संस्कृति की सुध लेनी चाहिए। आर्थिक कार्यक्रम जितने आवश्यक है, उनसे कम महत्त्व सस्कृति सम्बन्धी कार्यों का नही है । दोनो ही एक रथ के दो पहिए है, एक दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरे की कुशल नही रहती। जो उन्नत देश है, वे दोनो कार्य एक साथ सम्हालते है । वस्तुत उन्नति करने का यही एक मार्ग है। मन को भुलाकर केवल शरीर की रक्षा पर्याप्त नहीं है।
संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान और भावी जीवन का सर्वाङ्गपूर्ण प्रकार है। हमारे जीवन का ढग, हमारी संस्कृति है । सस्कृति हवा मे नही रहती, उसका मूर्तिमान रूप होता है। जीवन के नानाविध रूपो का समुदाय हो सस्कृति है। जब विधाता ने सृष्टि बनाई, तो पृथ्वी और आकाश के बीच विशाल अन्तराल नाना रूपो से भरने लगा। सूर्य, चन्द्र, तारे, मेघ पड़ऋतु, उपा, सन्ध्या आदि अनेक प्रकार के रूप हमारे आकाश मे भर गए। ये देवशिल्प थे। देवशिल्पो से प्रकृति की संस्कृति भुवनो मे व्याप्त हुई। इसी प्रकार मानवी जीवन के उष काल की हम कल्पना करें। उसका आकाश मानवीय शिल्प के रूपो से भरता गया। इस प्रयत्न मे सहस्रो वर्ष लगे। यही संस्कृति का विकास और परिवर्तन है। जितना भी जीवन का ठाठ है, उसकी सृष्टि मनुष्य के मन, प्राण और शरीर के दीर्घकालीन प्रयत्नो के फलस्वरूप हुई है। मनुष्य-जीवन रुकता नही, पीढी-दर-पीढी आगे बढ़ता है। संस्कृति के रूपो का उत्तराधिकार भी हमारे साथ चलता है । धर्म, दर्शन, साहित्य, कला उसी के अग है ।
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