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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-प्रन्न
एक शान्ति-प्रिय निरामिप-भोजी प्राणी है । अहिंसा मानव जीवन का बुनियादी तत्व है- गाम्चन नथ्य है-एक Reality है । अत मानव स्वभावत अहिंसोपजीवी है और गदा गे है।
जैन मान्यता के अनुसार इस भरत क्षेत्र में पर-प्रनय के पश्चात् जय अवपिणी मान प्रारभहुआ, तो पहले के तीन कालो मे यहाँ भोगभूमि की प्रवृति रही-प्राणी मात्र प्रागृत जीवन बिताना था, शेर, चीते सदृश हिंसक पशु भी उस ममय कूर नहीं थे। वे मानवों के गाय प्रेग में रहने और पाग खाते थे। कल्प-वृक्षो की मभ्यता थी, पापाण का प्रयोग मानव जीवन मे मुग्यता रखना था। मानवयुगल- पुरुप म्बी साथ साथ जन्मते और मरते ये-वृक्षों की छाया में फलाहार करगे ये आनन्द गे भोग भोगते थे । प्रकृति के अनुरूप उनका जीवन अहिमामय था।
अलवत्ता जब कल्पवृक्षो का अभाव हुआ और मानवों को गच्या बटने मे विपमता पनपी तो मानवी मे असतोप वढा । उस ममय थेप्ठ मानवो ने मानव-ममाज को कुलों में बाटा और प्रत्येक गुन को बराबरवरावर वृक्षो को दिया और भूमि का वितरण किया। समाज में ममता और मतोप गगने के लिए उन्होंने कुछ समाज नियम बनाए, जिनका आधार अहिंमा था। मी कारण वे नर पुगव "मनु" अयया "कुलकर" कहलाए । किन्तु कर्मभूमि का प्रारभ अतिम मनु नाभिराय के पुत्र श्री ऋपभ द्वारा हुआ। मौलिए इस काल मे अहिंसा के आदि उपदेष्टा तीयंकर ऋपभ या वृपभ ही है। उनके पश्चात कालरूम में २३ तीर्घट्दर हुए-वे भी अहिंसा धर्म के प्रचारक थे। ऋपभ में १८ तीयंकरो पर्यन्त अहिंगा धर्म का प्रावन्य रहा। किन्तु तीर्थकर मल्ली और मुनि सुयत के काल में यहाँ आमुर्ग-वृत्ति का श्रीगणेश हुआ। अमुगे ने आकर अहिंसक ब्राह्मणो को भगाकर पशु यन करने की कुप्रथा को जन्म दिया । तभी मै यहां हिंगा और अहिंसा का द्वन्द्व युद्ध चला । ब्राह्मणो मे दो दल हो गए, परन्तु श्रमण एक रहे और हिमा को मदा ही आगे बढाते रहे । उनको अहिमक परम्परा के ब्राह्मणो का भी सहयोग मिलता रहा । यह है, जैन दृष्टि से प्राग् ऐतिहासिक काल मे अहिमा की स्थिति की स्प-रेया।'
वैदिक और बौद्ध मान्यता
जैनो के अनुरूप ही वैदिक और वौद्ध मान्यता भी महिमा-प्रधान है। मनु महाराज ने सर्वकार्यों मे अहिंसा को ही प्रधानता दी और मानव-सस्कृति को अहिंमा पर आधारित किया । वेदो से स्पप्ट है, कि ऋषभ या वृपम ने ही सर्व प्रथम महादेवत्व को प्राप्त होकर, जनता को सच्चा मान दिया था।' मानव-जीवन मे अहिंसातत्व की प्रतिष्ठापना करने के लिए पहले यज्ञादि भी अन्न-घी आदि से किए जाते
१ "आदि तीर्थडूर भ० ऋषभदेव" प० २६-३५-आदिपुराण त्रिलोकप्रज्ञप्ति, विषष्टिशलाका
पुरुषचरित्र, पर्व १, सर्ग २, श्लोक १०६ से १२८ तक २ महाभारत (स्त्री० १०१२५-२८ एव शान्ति० २७१११-१३ ३ ऋगवेद ४१५८३ एव ३१६ १७ तथा आदि तीर्थकर भ० ऋषभदेव पृ० १२२-१२३ । भागवत २०५