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गुरुदेव श्री रन्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
ओझा जी के अनुमार रामा गन्द ही उपयुक्त है और इसकी उत्पत्ति मस्कृत राम में है । राजम्यान विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा० मानाप्रसाद जी गुप्त को अभी गमो माहित्य विमर्श पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि 'राम' रासा वलय, गला और गमक छन्दा, गमक और नाट्य रासक-उपनाटको रामक, राम तथा रामो नृत्यों में भी रामो प्रबन्ध परम्परा का कोई निकट का सम्बन्ध रहा है, यह निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता। कदाचिन् नहीं रहा है। टमी तरह हिन्दी साहित्य कोग के अनुसार 'गमो' नाम मे अभिहित कृतियां दा प्रकार की है-एक तो गौन-नन्य-परक है दूसरी छन्द वैविध्यपरक । उनी कोण में आगे लिया है कि नीन-नृत्य परक धारा पश्चिमी गजस्थान मे तथा गुजरात में विशेष रूप से समृद्ध हुई और छन्द वैविध्य-धारा पूर्वीय गजस्थान नया शेप हिन्दी प्रदेश में अधिक विकसित हुई । इस प्रकार गम गन्द के विभिन अय किए । उक्त लक्षणों में महाकवि स्वयम्भू का तथा हिन्दी माहित्य कोण का अभिमत अधिक युक्तियुक्न जान पड़ता है।
हिन्दी में रासा माहित्य पर विभिन्न कृतिया मिलता है। यही नहीं, हिन्दी के प्राचीन एव मध्ययुगीन साहित्य का मर्वाधिक सम्पन्न काव्य रूप रहा। इसके अतिरिक्त यदि हिन्दी का आदि कालिक साहित्य को रासा साहित्य के रूप में कहे तो भी अत्युक्ति नहीं होगी । गमा माहित्य जन प्रिय साहित्य था और उसके पठन-पाठन का अधिक प्रचार या । वह केवल वीर एव शृगार रन के वर्णन करने में ही प्रयुक्त हुआ हो, ऐसी बात भी नहीं है । जैन कवियों ने रामा माहित्य में अध्यात्म एव वैराग्य के भी मृब गीत गाए है। रामा परम्परा हिन्दी के आविर्भाव के पूर्व अपभ्रग एव गुर्जग्गाहित्य में भी पब मिलती है। जैन विद्वानो का तीनो ही भापाओ के रामा साहित्य के विकास में ममान योग रहा । लेकिन इम लेस में केवल दो भापाओ के रासा माहित्य पर ही विचार करेंगे । अपभ्रश साहित्य
अपभ्रश भाषा में अब्दुल रहमान के मन्दंश रामक के अतिरिक्त जितने भी गसा प्रय मिले है, वे सभी जैन विद्वानो द्वारा लिम्बे गए है । उद्योतन का चर्चरी गम मभवत. सबसे पुराना राम है, जो राज. स्थान के जालौर के आदिनाथ मदिर में छन्दोबद्ध किया गया था। इस गम की रचना तिथि नवत् ८३५ है। प० परमानन्द जी शास्त्री के शब्दों में इन राम में चार ध्रुवको की परिपाटी है, जिनमें एक ध्रुवक कामोन्मादक रस का जनक है, दूसग विपय वासना से पराड मुख करने वाला है, तीसरा ध्रुवक अशुचि मल मूत्रादि से संयुक्त अस्थि-पजर को दिसाकर विवेक की ओर ले जाता है। चौथा ध्रुवक वैराग्य की ओर माकृप्ट करता है । 'जम्बूमामिचरित' के ग्रन्थकार महाकवि वीर (११वी शताब्दी) के पिता कविवर देवदत्त ने अपभ्रश भाषा मे ही 'अम्बा देवी चर्चरी रास' लिखा था, जो अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। श्री जिनदत्तसूरि द्वारा रचित 'उपदेशरमापनराम' भी उस भापा की महत्वपूर्ण कृति है। इस का रचना काल सवत् १२०० के वाद का है । यह उपदेशात्मक काव्य है । यह रचना श्री लालचद भगवानदाम गाधी द्वारा सम्पादित रास और रामान्वयी काव्य में प्रकाशित हो चुकी है । उक्त रचनाओ के अतिरिक्त इसी
हिन्दी नाटक उद्धव और विकास पृष्ट ७० (द्वितीय सस्करण)
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