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जैन-दर्शन : एक चिन्तन
हीराकुमारी व्याकरण-साख्य-वेदान्त-तीर्थ
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जनदर्शन-इस वाक्य मे 'दर्शन' एक पद है और इसका व्युत्पत्तिगत अर्थ है "वृश्यते अनेन इति वर्शनम्" अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाता है, उसका नाम है दर्शन । यहाँ देखने का अर्थ केवल आँखो से से देखना ही नहीं, बल्कि अन्य चारो इन्द्रियो, मन तथा ज्ञान से देखना अर्थात् जानना है । इस व्यापक अर्थ मे इसका प्रयोग किया जाता है । कौन जानता है ? किसे जानता है ? जानने वाले का स्वरूप क्या है ? इत्यादि प्रश्न तथा उन प्रश्नो के विचार पूर्वक समाधान को ही हम दर्शनशास्त्र कहते है । जब हम विचार करना आरम्भ करते है, तो पहले हमारे सामने जो वस्तु उपस्थित होती है, उसके सम्बन्ध मे विचार करते हैं । तब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि मुझे जो पदार्थ जिस रूप मे भासित होता है, क्या वही रूप उसका सही रूप है ? सरसरी तौर पर इसका उत्तर है "हाँ", अर्थात् मुझे जिस वस्तु का जो रूप भासित होता है, वही उसका यथार्थ रूप है। पर जब हम सोचते है, तो कहना कठिन है कि मुझे भासित होने वाला स्वरूप ही उसका यथार्थ स्वरूप है । मेरे सामने कोई चीज है, उसे मै जिस रूप से देखना चाहता हूँ, दूसरे व्यक्ति को उसी समय वही वस्तु दूसरी तरफ से दूसरे रूप मे भासित होती है। तीसरा व्यक्ति उसे तीसरे रूप मे देखेगा । प्रकाश के तारतम्य से अथवा निकटता और दूरता के कारण से एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न व्यक्ति को भिन्न-भिन्न रूप मे भासित होती है। एक ही शब्द को भिन्नभिन्न व्यक्ति विविध रूप से सुनता है । स्पर्शादि के विषय मे भी यही कहा जा सकता है। एक ही वस्तु के सम्बन्ध मे जब विभिन्न व्यक्ति विचार करते है, तो प्रत्येक का विचार तो भिन्न होता ही है पर एक ही व्यक्ति का विचार भी एक ही वस्तु के सम्बन्ध मे समयान्तर मे बदल जाता है । अतएव कैसे कहा जा मकता है कि मुझे भासित होने वाला वस्तु का स्वरूप सत्य है और उसका अन्य रूप सत्य नही है। वस्तु का जितना भी रूप भासित होता है, वह सब काल्पनिक है और इसका मौलिक रूप कुछ और ही है
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