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जैन दर्शन की अपूर्व देन : स्याद्वाद
महासती पुष्पवती साहित्यरत्न
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सत्य अनन्त है, और अनन्त रूप मे ही उसके विराट रूप के दर्शन किए जा सकते हैं, उसे देश, काल व सम्प्रदाय की सकीर्ण सीमाओ मे आवद्ध नही किया जा सकता। सत्य जब असीम है, तब उसे ससीम बनाया भी कैसे जा सकता है । अनेक रूपात्मक सत्य को अनेक रूपो मे ग्रहण करना अनेकान्त है । अनेकान्तवाद जैन दर्शन की आधार शिला है ।
अनेकान्तबाद एक दृष्टि है, एक विचार है। विचार जगत का अनेकान्तवाद जब वाणी में उतरता है, तब वह स्याद्वाद कहलाता है। "स्याद्वाद मे स्याद् शब्द का अर्थ है अपेक्षा या दृष्टिकोण, और बाद शब्द का अर्थ है सिद्धान्त या प्रतिपादन"। दोनो शब्दो मे मिलकर बने हुए प्रस्तुत शब्द का अर्थ हुआ, किसी वस्तु, धर्म गुण या घटना आदि का किसी अपेक्षा से कथन करना स्याद्वाद है । स्याद्वाद का अपर नाम अपेक्षावाद भी है, जिसका अर्थ है-प्रत्येक वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणो मे विचार करना।
प्रत्येक पदार्थ मे अनेक धर्म है, उन सभी धर्मों का यथार्थ परिज्ञान तभी सभव है, जब अपेक्षा दृष्टि से विचारा जाए । दर्शन शास्त्र में नित्य-अनित्य, सत्-असत, एक-अनेक, भिन्न-अभिन्न, वाच्य-अवाच्य आदि, तथा लोक-व्यवहार मे स्थूल-सूक्ष्म, स्वच्छ-मलिन, मूर्ख-विद्वान, छोटा-बडा आदि ऐसे अनेक धर्म हैं, जो सापेक्षिक है । जब हम उन धर्मों में से किसी एक धर्म का कथन करना चाहेगे, तो अपेक्ष दृष्टि से ही सभव है। क्योकि कोई भी एक शब्द वस्तु के सम्पूर्ण धर्मों की अभिव्यक्ति नही कर सकता। अत विभिन्न शब्दो के माध्यम से ही विभिन्न धर्मों का प्रतिपादन किया जा सकता है।
अपेक्षा दृष्टि से विश्व के समस्त पदार्थ एक, और अनेक रूप है। उनमे एक ओर नित्यत्व के दर्शन होते है, तो दूसरी तरफ अनित्यत्व के। वस्तु के ध्रुव तत्त्व की ओर जब दृष्टि केन्द्रित होती है, तब वस्तु
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