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भारतीय संस्कृति मे बुद्ध और महावीर
त्रिपदी
गौतम ने पूछा-भन्ते । तत्त्व क्या है ? भगवान् ने उत्तर दिया उत्पन्न होना । फिर पूछा-भन्ते । तत्त्व क्या है ? फिर उत्तर मिला-विपन्न होना। प्रश्न आगे बढा-तत्त्व क्या है? उत्तर मिला—बने रहना।
फलित यह हुआ जो उत्पन्न और विपन्न होते हुए भी बना रहता है, अथवा जो अपना अस्तित्व रखते हुए भी उत्पन्न और विपन्न होता है, वही सत् है और जो सत् है वही तत्त्व है। रत्नत्रयी
गौतम ने पूछा-भते । क्या ज्ञानयोग मोक्ष का मार्ग है । भगवान् नही। तो भते । दर्शनयोग (भक्ति योग) मोक्ष का मार्ग है ? भगवान् नहीं। तो भते । चारित्र-योग (कर्म-योग) मोक्ष का मार्ग है ? भगवान्-नही। तो फिर मोक्ष का मार्ग क्या है?
भगवान्–ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्विति ही मोक्ष का मार्ग है । स्याद्वाद
महावीर सत्याश और पूर्ण सत्य-इन दोनो को न सर्वथा अभिन्न मानते थे और न सर्वथा भिन्न । पूर्ण रूप से सर्वथा वियुक्त होकर सत्याश मिथ्या हो जाता है और पूर्ण सत्य से सर्वथा अभिन्न होकर वह वचन द्वारा अगम्य बन जाता है । अतः सत्य की उपलब्धि के लिए अनेकान्त और उसके प्रतिपादन के लिए स्याद्वाद अपेक्षित है । एकान्तवादी धारणाएं इसीलिए मिथ्या है कि वे पूर्ण सत्य से वियुक्त हो जाती है । नित्यता मिथ्या नहीं है, क्योकि एक धार भी जिसका अस्तित्व प्रमाणित होता है, उसका अस्तित्व पहले भी था और बाद में भी होगा । अनित्यता भी मिथ्या नहीं है, क्योकि रूपान्तरण की प्रक्रिया अस्तित्व का अनिवार्य अग है। किन्तु नित्यता और अनित्यता दोनो अविच्छिन्न है । वे सापेक्ष रहकर सत्याश बनती है और निरपेक्ष स्थिति मे वे मिथ्या बन जाती है । खुले रत्न रत्न ही कहलाएंगे। एक धागे मे पिरो लेने पर उसका नाम हार होगा। इसी प्रकार जो दार्शनिक दृष्टियाँ निरपेक्ष रहती है, वे सम्यग्-दर्शन नही कहलाती । वे परस्पर सापेक्ष होकर ही सम्यग्-दर्शन कहलाती है ? ' ' सन्मति प्रकरण १२२२-२५
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