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भाव-भरित श्रद्धाञ्जलि
कृष्ण पक्ष के बीतने पर शुक्ल पक्ष आता है । इसी प्रकार रलमुनि ने अज्ञान-तिमिर से निकल कर जन्म के अनन्तर शुक्ल पक्ष मे शुभ एव शुक्ल ज्ञान-ध्यान मे प्रवेश किया। जिसका मन सदा धर्म मे रत रहता है, वह वैशाखी गति को प्राप्त करता है । गुरुदेव का जीवन-वृक्ष शाखाहीन (सन्तान विहीन) था और उन्होने पवित्र गति को यानी दिव्य-लोक को प्राप्त किया था।
जहा दुमस्स पुप्फेस्, आमोआइआ ने गुणा । सोहं वड्डावेन्ति तहा, सघस्स मुणीसु गुणा ॥
जिस प्रकार पुष्पो मे बसने वाले सुगन्धादिक गुण वृक्ष की श्री बढाते है, उसी प्रकार मुनियो मे रहने वाले गुण सघ की शोभा बढाते है । गुरुदेव के गुण इसी प्रकार मुनि सघ की श्री बढाने वाले थे।
समणो सावओ चेव, भमरो आविया रसं । भमरो वि रयणे सो, रस दाईम सम्वओ ॥
श्रमण और श्रावक भ्रमर (मधुकरो) वृत्ति धारण कर भ्रमणशील होने पर ही रस को ग्रहण करते है । किन्तु रत्न मुनि श्री भ्रमर यानी भ्रमणशील होने पर भी रस को स्वय ग्रहण न कर सभी लोगो को प्रदान करते थे। (दशवकालिक सूत्र के अनुसार भ्रमरवृत्ति युक्त मुनि और नन्दीसूत्र के अनुसार भ्रमर वृत्ति वाले श्रावक कहे गए है।)
तह निरूविम तत्त, जय पडिवाई जए। न य पुष्फ किलामेइ, अली वकपि माणस ॥
जिस प्रकार भवरा फूल को कप्ट नहीं देता, उसी प्रकार मुनिवर ने प्रतिवादी-जन का मन पीडित किए बिना तत्व का (वास्तविकता, सत्य का) निरूपण कर विजय को प्राप्त किया था।
जो को वि सद्धालू, जणो तस्स ग्रन्थ समूहो । पर रंजेइ वेरग्गे, सो य पीणेइ अप्पय ॥
आज भी श्रद्धालु जन उनके रचे हुए नवतत्व, मोक्षमार्ग-प्रकाश आदि ग्रथो का पठन-श्रवण कर अपना तथा दूसरो का मन वैराग्य-रग मे रग देता है एव आत्मतृप्ति प्राप्त करता है।
धन्नोह थुणेमि तय, धन्नो य कहराहणो । एसो समो जेण बुहा, योयन्ध युणति इहं ॥६॥
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