Book Title: Raghuvansh Mahakavya
Author(s): Kalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
Publisher: Motilal Banarsidass
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कथासार
कविकुलशिरोमणि महाकवि कालिदास सर्वप्रथम शिव-पार्वती को प्रणाम करके रघुकुल का वर्णन करते हैं । .
भगवान् सूर्य के पुत्र मनु सूर्यवंश के प्रवर्तक हुए और उन्हीं के वंश में भव्यमूर्ति, बुद्धिमान्, प्रजावत्सल राजा दिलीप हुए। राजा दिलीप को सन्तान नहीं थी, अतः समस्त भूमण्डल के एकमात्र राजा होते हुए भी वे बड़े दुःखी रहा करते थे ।
एक दिन राज्यभार अपने मन्त्रियों को सौंपकर महारानी सुदक्षिणा को साथ लेकर उन्होंने अपने कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रम को प्रस्थान किया। मार्ग में सुन्दर वन तथा कमलयुक्त तालाबों की शोभा देखते हुए, हरिणादि पशु-पक्षियों की मनोहर वाणी सुनते हुए और अपनी ग्रामीण प्रजा की भेंट को स्वीकार करते हुए सायंकाल में ऋषियों से पूर्ण गुरु के आश्रम में पहुँचे ।
आश्रम में राजा के पहुँचते ही सभ्यों ने अपने रक्षक राजा का सत्कार किया और राजा ने अरुन्धती - सहित गुरुजी के दर्शन किये तथा चरणस्पर्श कर गुरु का आशीर्वाद प्राप्त किया। कुशलक्षेम पूछने के बाद राजा ने सन्तान न होने के कारण अपना कष्ट गुरुजी से कहा । गुरुजी ने समाधि के द्वारा कारण जानकर राजा से कह कि एक समय स्वर्ग से लौटते हुए तुमने कल्पवृक्ष की छाया में बैठी हुई कामधेनु की प्रदक्षिणा, पूजा आदि नहीं की थी । उसीने तुम्हें शाप दे दिया और वह कामधेनु इस समय वरुण के एक बड़े यज्ञ के लिए पाताल गई है, अतः तुम कामधेनु की सन्तान नन्दिनी की, जो कि यहाँ है, सेवा करो । नन्दिनी भी कामधेनु के समान प्रसन्न होने पर मनोरथ को पूर्ण करनेवाली है । अतः हे राजन् ! तुम जंगली कन्द, मूल खाकर नन्दिनी के चलने पर चलना, बैठने पर बैठना और इसके जल पीने पर जल पीना और तुम्हारी धर्मपत्नी भी नियमपूर्वक प्रातः चन्दनपुष्पादि से इस नन्दिनी की पूजा करके तपोवन की सीमा तक इसका अनुगमन करे तथा सायंकाल वहीं तक लेने जावे । इस प्रकार सेवा में तत्पर रहो जब तक कि यह प्रसन्न न हो । यह कहकर वसिष्ठ जी ने गो-सेवारूप व्रत की विधि का उपदेश देकर राजा को विश्राम करने की आज्ञा दी और राजा ने गुरुजी की बताई हुई पर्णकुटी में रात बितायी ।