Book Title: Prem Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Mahavideh Foundation View full book textPage 7
________________ इसलिए जहाँ स्वार्थ न हो वहाँ पर शुद्ध प्रेम होता है। स्वार्थ कब नहीं होता? 'मेरा-तेरा' न हो तब स्वार्थ नहीं होता। 'मेरा-तेरा' है. वहाँ अवश्य स्वार्थ है और 'मेरा-तेरा' जहाँ है वहाँ अज्ञानता है। अज्ञानता के कारण 'मेरा-तेरा' हुआ। 'मेरा-तेरा' के कारण स्वार्थ है और स्वार्थ हो वहाँ प्रेम नहीं होता। और 'मेरा-तेरा' कब नहीं होता? 'ज्ञान' हो वहाँ 'मेरातेरा' नहीं होता। ज्ञान के बिना तो 'मेरा-तेरा' होता ही है न? फिर भी यह समझ में आए ऐसी वस्तु नहीं है। जगत् के लोग प्रेम कहते हैं वह भ्रांति भाषा की बात है, छलने की बात है। अलौकिक प्रेम की हूंफ (संरक्षण, आश्रय) तो बहुत अलग ही होती है। प्रेम तो सबसे बड़ी वस्तु है। ढाई अक्षर प्रेम के..... इसलिए तो कबीर साहब ने कहा है, 'पुस्तक पढ़ पढ़ जग मूआ, पंडित भया न कोई, ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होई।' प्रेम के ढाई अक्षर इतना ही समझे तो बहुत हो गया। बाकी, पुस्तक पढ़े उसे तो कबीर साहब इतनी बड़ी-बड़ी देते थे, ये पुस्तक तो पढ़कर जगत् मर गया, पर पंडित कोई हुआ नहीं। एक प्रेम के ढाई अक्षर समझने के लिए। परन्तु ढाई अक्षर प्राप्त हुए नहीं और भटक मरे। इसलिए पुस्तक में तो ऐसे देखते रहते हैं न, वह तो सब मेडनेस वस्तु है। परन्तु जो ढाई अक्षर प्रेम का समझा वह पंडित हो गया, ऐसा कबीर साहब ने कहा है। कबीर साहब की बातें सुनी हैं सभी? प्रेम हो तो बिछड़ें कभी भी नहीं। यह तो सभी मतलबवाला प्रेम है। मतलबवाला प्रेम, वह प्रेम कहलाता है? प्रश्नकर्ता : उसे आसक्ति कहा जाता है? दादाश्री : है ही आसक्ति । और प्रेम तो अनासक्त योग है। अनासक्त योग से सच्चा प्रेम उत्पन्न होता है। प्रेम की यथार्थ परिभाषा दादाश्री : वोट इज द डेफिनेशन ऑफ लव? प्रश्नकर्ता : मुझे पता नहीं। वह समझाइए। दादाश्री : अरे, मैं ही बचपन से प्रेम की परिभाषा ढूंढ रहा था न ! मुझे हुआ, प्रेम क्या होता होगा? ये लोग 'प्रेम-प्रेम' किया करते हैं, वह प्रेम क्या होगा? उसके बाद सभी पुस्तके देखीं, सभी शास्त्र पढे. पर प्रेम की परिभाषा किसी जगह पर मिली नहीं। मुझे आश्चर्य लगा कि किसी भी शास्त्र में 'प्रेम क्या है', ऐसी परिभाषा ही नहीं दी?! फिर जब कबीर साहब की पुस्तक पढ़ी, तब दिल ठरा कि प्रेम की परिभाषा तो इन्होंने दी है। वह परिभाषा मुझे काम लगी। वे क्या कहते हैं कि, 'घड़ी चढ़े, घड़ी उतरे, वह तो प्रेम न होय, अघट प्रेम ही हृदय बसे, प्रेम कहिए सोय।' उन्होंने परिभाषा दी। मुझे तो बहुत सुंदर लगी थी परिभाषा, कहना पड़ेगा कबीर साहब, धन्य है!' यह सबसे सच्चा प्रेम। घड़ी में चढ़े और घड़ी में उतरे वह प्रेम कहलाएगा?! प्रश्नकर्ता : तो सच्चा प्रेम किसे कहा जाता है? दादाश्री : सच्चा प्रेम जो चढ़े नहीं, घटे नहीं वह ! हमारा ज्ञानियों का प्रेम ऐसा होता है, जो कम-ज्यादा नहीं होता। ऐसा हमारा सच्चा प्रेम पूरे वर्ल्ड पर होता है। और वह प्रेम तो परमात्मा है। प्रश्नकर्ता : फिर भी जगत् में कहीं तो प्रेम होगा न? दादाश्री : किसी जगह पर प्रेम ही नहीं है। प्रेम जैसी वस्तु ही इस जगत् में नहीं है। सभी आसक्ति ही है। उल्टा बोलते हैं न, तब तुरन्त पता चल जाता है। अभी आज कोई आए थे विलायत से, तो आज तो उनके साथ ही बैठे रहने में अच्छा लगता है। उसके साथ ही खाना-घूमना अच्छा लगताPage Navigation
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