Book Title: Prem
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 34
________________ ५८ दादाश्री : लागणी होती है। हम लागणी बिना के नहीं होते हैं। प्रश्नकर्ता : पर फिर भी आपको वह लागणी टच नहीं होती। दादाश्री : जहाँ कुदरती प्रकार से रखनी चाहिए, वहाँ पर ही हम रखते हैं और आप अकुदरती जगह पर रखते हो। प्रश्नकर्ता : उस डिमार्केशन को ज़रा स्पष्ट कीजिए न! दादाश्री : 'फ़ॉरेन' की बात फ़ॉरेन में ही रखनी है और 'होम' में नहीं ले जानी। लोग 'होम' में ले जाते हैं। फ़ॉरेन में रखकर और हमें 'होम' में रहना है। प्रश्नकर्ता : पर उन लागणियों का प्रवाह हो, तब 'उसे' 'फ़ॉरेन' का और 'होम' का डिमार्केशन नहीं होने देता है न? दो भाग अलग पड़ते नहीं है न उस समय? दादाश्री : 'ज्ञान' लिया हो, उसे क्यों न पड़े? प्रश्नकर्ता : यह समझना है कि आप किस तरह अप्लाय करते हैं! दादाश्री : हम लागणी को 'फ़ॉरेन' में रखकर 'होम' में बैठ जाते हैं। और लागणी अंदर घुसती हो तो कहते हैं, 'बाहर बैठ।' और आप तो कहोगे, 'आ भाई, आ, आ, अंदर आ।' 'अंदर छूने न दे', उसके परिणाम.... हमें ये सभी कहते हैं कि, 'दादा, आप हमारे लिए बहुत चिंता रखते हो, नहीं!' वह ठीक है। पर उन्हें पता नहीं कि दादा चिंता को छूने भी नहीं देते। क्योंकि चिंता रखनेवाला मनुष्य कुछ भी कर नहीं सकता, निर्वीर्य हो जाता है। चिंता नहीं रखते, तो सब कर सकते हैं। चिंता रखनेवाला मनुष्य तो खतम हो जाता है। इसलिए ये सब कहते हैं, वह बात सही है। हम सुपरफ्लुअस सबकुछ करते हैं, पर हम छूने नहीं देते। प्रश्नकर्ता : तो ऐसे असल में कुछ भी नहीं करते? कोई महात्मा दुख में आ गया तो कुछ करते नहीं हैं? ___ प्रेम दादाश्री : करते हैं न! पर वह सुपरफ्लुअस, अंदर छूने नहीं देते। बाहर के भाग का पूरा ही कर लेते हैं। बाहर के भाग में सारे ही प्रयोग पूरे होने देने हैं, पर सिर्फ चिंता ही नहीं करनी है। चिंता से तो सब बिगड़ता है उल्टा। आप क्या कहते हो? चिंता करने को कहते हो मुझे? छूने दें तो वह काम ही नहीं हो। पूरे जगत् को ही छूता है न! अंदर छूता है इसलिए तो जगत् का काम होता नहीं। हम छने नहीं देते इसलिए तो काम होता है। छूने नहीं देते इसलिए हमारी सेफसाइड और उसकी भी सेफसाइड। आपको पसंद आया, वैसा छूने न दे वह? आपने तो छूने दिया है न, नहीं? हमने तो हिसाब देख लिया कि हम छूने दें तो यहाँ निर्वीर्य होता है और उसका काम नहीं होता, और न छूने दें, तो आत्मवीर्य प्रकट होता है और उसका काम हो जाता है। यह विज्ञान प्रेमस्वरूप है। प्रेम में क्रोध-मान-माया-लोभ कुछ भी होता नहीं है। वह हो, तब तक प्रेम होता नहीं है। सात्विक नहीं, शुद्ध प्रेम 'यह' प्रश्नकर्ता : अभी दुनिया में सब लोग शुद्ध प्रेम के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हैं। दादाश्री : शुद्ध प्रेम का ही यह रास्ता है। अपना यह जो विज्ञान है न, किसी भी तरह की, किसी भी प्रकार की इच्छा बिना का है. इसलिए शुद्ध प्रेम का रास्ता यह उद्भव हुआ है। नहीं तो होता नहीं इस काल में। पर इस काल में उत्पन्न हुआ, वह गजब हुआ है। प्रश्नकर्ता : शुद्ध प्रेम और सात्विक प्रेम का जरा भेद समझाइए। दादाश्री : सात्विक प्रेम अहंकार सहित होता है। और शुद्ध प्रेम में अहंकार भी नहीं होता। सात्विक प्रेम में सिर्फ अहंकार ही होता है। उसमें लोभ नहीं होता, कपट नहीं होता, उसमें सिर्फ मान ही होता है। अहम् - मैं हूँ, इतना ही! अस्तित्व का भान होता है खुद को और शुद्ध उसमें लोभ नहीं होता, कपडामा

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