Book Title: Prem
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 35
________________ प्रेम ६० प्रश्नकर्ता : मुझे ज़रा प्रेम और करुणा का क्या संबंध है, वह समझना है। दादाश्री : करुणा, किसी खास दृष्टि से हो, तब करुणा कहलाती है। और किसी और दृष्टि हो तब प्रेम कहलाता है। करुणा कब उपयोग करते हैं? सामान्य भाव से सभी के दुख खुद देख सकते हैं। वहाँ करुणा रखते हैं। इसलिए करुणा यानी क्या? एक प्रकार की कृपा है। और प्रेम, वह अलग वस्तु है। प्रेम को तो विटामिन कहा जाता है। प्रेम तो विटामिन कहलाता है। ऐसा प्रेम देखे न तब उसमें विटामिन उत्पन्न हो जाता है, आत्मविटामिन। देह के विटामिन तो बहुत दिन खाए हैं, पर आत्मा का विटामिन चखा नहीं न?! उसमें आत्मवीर्य प्रकट होता है। ऐश्वर्यपन प्रकट होता है। प्रेम में तो खुद अभेद स्वरूप हो गया होता है। प्रश्नकर्ता : पर ऐसा है क्या कि किसी भी क्रिया के अंदर फिर वह सात्विक क्रिया हो, रजोगुणी क्रिया हो या किसी भी प्रकार की क्रिया हो तो उस क्रिया में अहंकार का तत्त्व नहीं होता। वह तार्किक प्रकार से सच है? दादाश्री : नहीं हो सकता। अरे, ऐसा करने जाए तो भूल है। क्योंकि अहंकार के बिना क्रिया ही नहीं होती। सात्विक क्रिया भी नहीं होती। प्रश्नकर्ता : शुद्ध प्रेम रखना तो चाहिए न? तो वह अहंकार के बिना धारण किस प्रकार से होगा? अहंकार और शुद्ध प्रेम दो साथ में रह नहीं सकते? दादाश्री : अहंकार है, तब तक शुद्ध प्रेम आता ही नहीं न ! अहंकार और शुद्ध प्रेम दो साथ में नहीं रह सकते। शुद्ध प्रेम कब आता है? अहंकार विलय होने लगे तब से शुद्ध प्रेम आने लगता है और अहंकार संपूर्ण विलय हो जाए तब शुद्ध प्रेम की मूर्ति बन जाता है। शुद्ध प्रेम की मूर्ति ही परमात्मा है। वहाँ पर आपका सभी प्रकार का कल्याण हो जाता है। वह निष्पक्षपाती होता है, कोई पक्षपात नहीं होता। शास्त्रों से पर होता है। चार वेद पढ़ लिए तब वेद इटसेल्फ बोलते हैं, 'दिस इज़ नोट देट, दिस इज़ नोट देट।' तो ज्ञानी पुरुष कहते हैं, दिस इज देट, बस! 'ज्ञानी पुरुष' तो शुद्ध प्रेमवाले, इसलिए तुरन्त ही आत्मा दे देते हैं! मात्र दो गुण हैं उनमें। वह शुद्ध प्रेम है और शुद्ध न्याय है। दो हैं उनके पास। शुद्ध न्याय जब इस जगत् में हो, तब समझना कि यह भगवान की कृपा उतरी। शुद्ध न्याय! नहीं तो ये दूसरे न्याय तो सापेक्ष न्याय हैं! प्रश्नकर्ता : वह सहज ही होता है न दादा? दादाश्री : सहज। प्रश्नकर्ता : इसलिए उसे उसमें किसी प्रकार का कुछ करना रहता नहीं है। दादाश्री : कुछ नहीं। यह सब मार्ग ही सहज का है। गालियाँ देनेवाले पर भी प्रेम प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान के बाद हमें जो अनुभव होता है, उसमें कुछ प्रेम, प्रेम, प्रेम छलकता है, वह क्या है? दादाश्री : वह प्रशस्त राग है। जिस राग से संसार के राग सारे छूट जाते हैं। ऐसा राग उत्पन्न हो तब संसार में जो भी दूसरे राग सभी जगह लगे हुए हों, वे सब वापिस आ जाते हैं। इसे प्रशस्त राग कहा है भगवान ने। प्रशस्त राग, वह प्रत्यक्ष मोक्ष का कारण है। वह राग बांधता नहीं है। क्योंकि उस राग में संसारी हेत् नहीं है। उपकारी के प्रति राग उत्पन्न होता है, वह प्रशस्त राग। वह सभी रागों को छुड़वाता है। प्रेम प्रकटाए आत्म ऐश्वर्य करुणा वह सामान्य भाव है और वह सब ओर बरतता रहता है कि सांसारिक दुखों से यह जगत् फँसा है वे दुख किस तरह जाएँ?

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