Book Title: Prem
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 31
________________ ५२ कहलाती है? कि प्रेमस्वरूप हो जाए तो। सारे जगत् के साथ अभेदता कहलाती है। तब वहाँ पर दूसरा कुछ दिखता नहीं, प्रेम के अलावा। आसक्ति कब कहलाती है? कि जब कोई संसारी चीज़ लेनी हो तब। संसारी चीज़ का हेतु होता है तब । यह सच्चा सुख के लिए तो फायदा होगा, उसका हर्ज नहीं। हमारे ऊपर जो प्रेम रहता है, उसका हर्ज नहीं। वह आपको हैल्प करेगा। दूसरी टेढ़ी जगहों पर होनेवाला प्रेम उठ जाएगा। प्रश्नकर्ता : यानी हममें जागृत होनेवाला भाव, वह आपके हृदय के ही प्रेम का परिणाम है, वही? दादाश्री : हाँ, प्रेम का ही परिणाम है। यानी प्रेम के हथियार से ही समझदार हो जाते हैं। मुझे डाँटना नहीं पड़ता। मैं, लड़ना किसीसे नहीं चाहता, मेरे पास तो एक ही प्रेम का हथियार है, 'मैं प्रेम से जगत् को जीतना चाहता हूँ।' क्योंकि हथियार मैंने नीचे रख दिए हैं। जगत् हथियार के कारण ही विरोधी होते हैं। क्रोध-मान-माया-लोभ के वे हथियार मैंने नीचे रख दिए हैं इसलिए मैं वे काम में नहीं लेता। मैं प्रेम से जगत् को जितना चाहता हूँ। जगत् जो समझता है वह तो लौकिक प्रेम है। प्रेम तो उसका नाम कि आप मुझे गालियाँ दो तो मैं डिप्रेस न होऊँ और हार चढ़ाओ तो एलिवेट न हो जाऊँ, उसका नाम प्रेम कहलाता है। सच्चे प्रेम में तो फर्क ही नहीं पड़ता। इस देह के भाव में फर्क पडे, पर शद्ध प्रेम में नहीं।। मनुष्य तो सुंदर हों तब भी अहंकार से बदसूरत दिखते हैं। सुंदर कब दिखते हैं? तब कहें, प्रेमात्मा हो जाए तब। तब तो बदसूरत भी सुंदर दिखता है। शुद्ध प्रेम प्रकट हो जाए तभी सुंदर दिखने लगता है। जगत् के लोगों को क्या चाहिए? मक्त प्रेम। जिसमें स्वार्थ की गंध या किसी प्रकार का मतलब नहीं होता। यह तो कुदरत का लॉ है। नैचुरल लॉ! क्योंकि प्रेम वह खुद परमात्मा प्रेम वहीं मोक्षमार्ग अर्थात् जहाँ प्रेम न दिखे, वहाँ मोक्ष का मार्ग ही नहीं। हमें नहीं आए, बोलना भी नहीं आए, तब भी वह प्रेम रखे, तब ही सच्चा। यानी एक प्रमाणिकता और दूसरा प्रेम कि जो प्रेम कम-ज्यादा नहीं होता। इन दो जगह पर भगवान रहते हैं। क्योंकि जहाँ प्रेम है, निष्ठा है, पवित्रता है, वहाँ पर ही भगवान है। सारा रिलेटिव डिपार्टमेन्ट पार कर जाए तब निरालंब होता है, तब प्रेम उत्पन्न होता है। 'ज्ञान' कहाँ सच्चा होता है? जहाँ प्रेम से काम लिया जाता हो वहाँ और प्रेम हो वहाँ लेन-देन नहीं होता। प्रेम हो वहाँ एकता होती है। जहाँ फ़ीस होती है, वहाँ प्रेम नहीं होता। लोग फ़ीस रखते हैं न? पाँच-दस रुपये? कि 'आना, आपको सुनना हो तो, यहाँ नौ रुपये फ़ीस है' कहेंगे। यानी धंधा हो गया! वहाँ प्रेम नहीं होता। रुपये हों वहाँ प्रेम नहीं होता। दूसरा, जहाँ प्रेम वहाँ ट्रिक नहीं होती और जहाँ ट्रिक है वहाँ प्रेम नहीं होता। जहाँ सो गए, वहीं का ही आग्रह हो जाता है। चटाई में सोता हो तो उसका आग्रह हो जाता है, और डनलप के गद्दे में सोता हो तो उसका आग्रह हो जाता है। चटाई पर सोने के आग्रहवाले को गद्दे में सुलाएँ तो उसे नींद नहीं आती। आग्रह ही विष है और निराग्रहता ही अमृत है। निराग्रहीपन जब तक उत्पन्न नहीं होता तब तक जगत् का प्रेम संपादन नहीं होता। शुद्ध प्रेम निराग्रहता से उत्पन्न होता है और शुद्ध प्रेम वही परमेश्वर है। इसलिए प्रेमस्वरूप कब हुआ जाएगा? नियम-वियम न ढूंढो, तब। यदि नियम ढूंढोगे तो प्रेमस्वरूप नहीं हुआ जाएगा! 'क्यों देर से आए?' कहें वह प्रेमस्वरूप नहीं कहलाता और प्रेमस्वरूप हो जाओगे तब लोग आपका सुनेंगे। हाँ, आप आसक्तिवाले हो तो आपका कौन सुने? आपको पैसे चाहिए, आपको दूसरी स्त्रियाँ चाहिए, वह आसक्ति कहलाएगी न?! शिष्य इकट्ठे करना वह भी आसक्ति कहलाएगी न?

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