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पुण्य होगा तो प्रेम से कोई बुलाएगा। उस पुण्य से प्रेम है और आपके पाप का उदय हुआ तब आपका भाई ही कहेगा 'नालायक है त, ऐसा है
और वैसा है', चाहे जितने उपकार करो तब भी। यह पुण्य और पाप का प्रदर्शन है और हम समझते हैं कि वे ही ऐसा करते हैं।
यानी यह तो पुण्य बोल रहा है, इसलिए प्रेम तो होता ही नहीं। 'ज्ञानी पुरुष' के पास जाएँ, तब प्रेम जैसी वस्तु दिखती है। बाकी, प्रेम तो जगत् में किसी जगह पर नहीं होता।
अंदर की सिलक सँभालो यह तो लोग बाहर कुछ तकरार हुई कि दोस्ती छोड़ देते हैं। पहले दोस्ती होती है और बहुत प्रेम से रहते हैं तो बाहर भी प्रेम और अंदर भी प्रेम! और फिर जब तकरार हों तब बाहर भी तकरार और अंदर भी तकरार। अंदर तकरार नहीं करनी है। वह समझता नहीं पर अंदर प्रेम रहने देना चाहिए। अंदर सिलक होगी न, तब तक मनुष्यपना नहीं जाएगा। अंदर की सिलक गई यानी मनुष्यपन भी चला जाएगा।
प्रेम में संकुचितता नहीं होती मुझमें प्रेम होगा या नहीं होगा? या आप अकेले ही प्रेमवाले हो? यह आपने अपना प्रेम संकुचित किया हुआ है कि 'यह वाइफ और ये बच्चे।' जब कि मेरा प्रेम विस्तारपूर्वक है।
प्रश्नकर्ता : प्रेम इतना संकुचित हो सकता है कि एक ही पात्र के प्रति सीमित रहे?
दादाश्री : संकुचित हो ही नहीं, उसका नाम प्रेम। संकुचित हो न, कि इतने एरिया जितना ही, तब तो आसक्ति कहलाता है। और वह संकुचित कैसा? चार भाई हों, और चारों के तीन-तीन बच्चे हों और इकट्ठे रहते हों, तो तब तक सभी घर में हमारा-हमारा बोलते हैं। हमारे प्याले फूट गए' सब ऐसा बोलते हैं। पर चारों जब अलग हो जाएँ तब उसके दूसरे दिन, आज बुधवार के दिन अलग हुए तो गुरुवार के दिन वे अलग
ही बोलते हैं, 'यह आपका और यह हमारा।' ऐसे संकुचितता आती जाती है। इसलिए पूरे घर में प्रेम जो फैला हुआ था, वह अब ये अलग हुए इसलिए संकुचित हो गया। फिर पूरे मोहल्ले की तरह, युवक मंडल की तरह करना हो तो वापिस उनका प्रेम एक हो जाता है। बाकी प्रेम, वहाँ संकुचितता नहीं होती, विशालता होती है।
राग और प्रेम प्रश्नकर्ता : तो प्रेम और राग ये दोनों शब्द समझाइए।
दादाश्री : राग, वह पौद्गलिक वस्तु है और प्रेम, वह सच्ची वस्तु है। अब प्रेम कैसा होना चाहिए? कि बढ़े नहीं, घटे नहीं, उसका नाम प्रेम कहलाता है। और बढ़े-घटे वह राग कहलाता है। इसलिए राग में और प्रेम में फर्क ऐसा है कि वह एकदम बढ़ जाए तो उसे राग कहते हैं, इसलिए फँसा फिर। यदि प्रेम बढ़ जाए तो राग में परिणमित होता है। प्रेम उतर जाए तो द्वेष में परिणमित होता है। इसलिए उसका नाम प्रेम कहलाता ही नहीं न! वह तो आकर्षण और विकर्षण है। इसलिए अपने लोग जिसे प्रेम कहते हैं, उसे भगवान आकर्षण कहते हैं।
राग कॉज़ेज़, अनुराग इफेक्ट प्रश्नकर्ता : पर दादा, राग होता है, उसमें से अनुराग होता है और फिर उसमें से आसक्ति होती है।
दादाश्री : ऐसा है, राग, वे कॉज़ेज़ है और अनुराग और आसक्ति वह इफेक्ट है। वह इफेक्ट बंद नहीं करने है, कॉज़ेज़ बंद करने हैं। क्योंकि यह आसक्ति कैसी है? एक बहन कहती है, 'आपने मुझे ज्ञान दिया और मेरे पुत्र को भी ज्ञान दिया है। फिर भी मुझे उस पर इतना अधिक राग है कि ये ज्ञान दिया, फिर भी राग जाता नहीं।' तब मैंने कहा, 'वह राग नहीं है, बहन। वह आसक्ति है।' तब वह कहती है, "पर वैसी आसक्ति नहीं रहनी चाहिए न? आसक्ति 'आपको', 'शुद्धात्मा' को नहीं है।"