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हूँ।' मैंने कहा, 'करना न, तू और तेरी पत्नी दोनों करना(!) पर आसक्ति गई नहीं है, तब तक तू किस तरह यह निष्काम भक्ति करेगा?!'
आसक्ति तो इतना तक चिपकती है, कि अच्छे कप-प्लेट हो न तो उसमें भी चिपक जाती है। अरे, यहाँ क्या जीवित है?! एक व्यापारी के यहाँ मैं गया था, वह दिन में पाँच बार लकड़ा देख आता, तब उसे संतोष होता। अहा! ऐसा यह सुंदर रेशम जैसा गोल!! और ऐसे हाथ से सहलाता रहता, तब तो उसे संतोष होता था। तो इस लकड़े के ऊपर कितनी आसक्ति है ! मात्र स्त्री के प्रति ही आसक्ति हो, ऐसा कुछ नहीं है। विकृत प्रेम जहाँ चिपका वहाँ आसक्ति!
आसक्ति से मुक्ति का मार्ग...
दृष्टिफेर से आसक्ति प्रश्नकर्ता : मनुष्य को जगत् के प्रति किसलिए आसक्ति होती है?
दादाश्री : पूरा जगत् आसक्ति में ही है। जब तक सेल्फ में रहने की शक्ति उत्पन्न नहीं हो, सेल्फ की रमणता उत्पन्न नहीं हो, तब तक आसक्ति में ही सारे पड़े हुए हैं। साधु-सन्यासी-आचार्य, सभी आसक्ति में ही पड़े हुए हैं। इस संसार की, बीवी-बच्चों की आसक्ति छूटे तो पुस्तक की आसक्ति लग जाती है, नहीं तो 'हम' 'हम' की आसक्ति ! वे सभी आसक्तियाँ ही हैं, जहाँ जाए वहाँ।
आसक्ति मतलब विकृत प्रेम जो प्रेम कम-ज्यादा हो, वह आसक्ति कहलाता है। हमारा प्रेम बढ़ता-घटता नहीं है। आपका बढ़ता-घटता है, इसलिए वह आसक्ति कहलाता है। कदाचित ऋणानुबंधी के सामने प्रेम कम-ज्यादा हो तो 'हम' उसे 'जानें'। अब प्रेम कम-ज्यादा नहीं होना चाहिए। नहीं तो प्रेम एकदम बढ़ गया तो भी आसक्ति कहलाता है और कम हो गया तो भी आसक्ति कहलाता है। और आसक्ति में हमेशा राग-द्वेष हुआ करते हैं। जो आसक्ति है उसे ही प्रेम मानते हैं, वह लोकभाषा है न! वापिस दूसरे भी ऐसा ही कहते हैं, उसे ही प्रेम कहते हैं। पूरी लोकभाषा ही ऐसी हो गई है!
प्रश्नकर्ता : इसमें प्रेम और आसक्ति का भेद ज़रा समझाइए न !
दादाश्री : जो विकृत प्रेम है उसका नाम ही आसक्ति। यह जगत् यानी विकत है, उसमें जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह विकृत प्रेम कहलाता है, और उसे आसक्ति ही कहा जाता है।
यानी आसक्ति में ही जगत् पूरा पड़ा हुआ है। अरे अंदर बैठे हैं न, वे अनासक्त है और वे सब अकामी हैं वापिस, और ये सब कामनावाले। आसक्ति है, वहाँ कामना है। लोग कहते हैं कि 'मैं निष्काम हो गया हूँ' परन्तु आसक्ति में रहते हैं वे निष्काम नहीं कहलाते। आसक्ति के साथ कामना होती ही है। कई लोग कहते हैं न, कि 'मैं निष्काम भक्ति करता
प्रश्नकर्ता : आसक्ति का सूक्ष्म स्वरूप आपने समझाया। अब उस आसक्ति से मुक्ति कैसे मिले?
दादाश्री : 'मैं अनासक्त हूँ', ऐसा 'उसे' भान हो तो मुक्ति मिल जाए। आसक्ति नहीं निकालनी है, 'अनासक्त हूँ' वह भान करना है। बाकी, आसक्ति जाती नहीं है। अब आप जलेबी खाने के बाद चाय पीओ तो क्या होगा?
प्रश्नकर्ता : चाय फीकी लगेगी।
दादाश्री: हाँ. उसी तरह 'खद का स्वरूप प्राप्त होने के बाद यह संसार फीका लगता है, आसक्ति उड़ जाती है। खद का स्वरूप प्राप्त हो जाने के बाद जो उसे सँभालकर रखें, हम कहें उस अनुसार आज्ञापूर्वक रहे तो उसे यह संसार फीका लगेगा।
आसक्ति निकालने से जाती नहीं। क्योंकि इस लोहचुंबक और आलपिन दोनों को आसक्ति जो है, वह जाती नहीं। उसी प्रकार ये मनुष्यों की आसक्ति जाती नहीं। कम होती है, परिमाण कम होता है पर जाता नहीं। आसक्ति जाए कब? 'खुद' अनासक्त हो तब। 'खुद' आसक्त ही हुआ है। नामधारी मतलब आसक्त! नाम पर आसक्ति, सभी पर आसक्ति !