Book Title: Prem
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 5
________________ संपादकीय प्रेम शब्द इतना अधिक उलटा-पलटा गया है कि हमें पग-पग पर प्रश्न हुआ करता है कि इसे तो कहीं प्रेम कहते होंगे? प्रेम हो वहाँ ऐसा तो हो सकता है? सच्चा प्रेम कहाँ मिलेगा? सच्चा प्रेम किसे कहना? प्रेम की यथार्थ परिभाषा तो प्रेममूर्ति ज्ञानी ही देते हैं। बढ़े नहीं, घटे नहीं, वह सच्चा प्रेम। जो चढ़ जाए और उतर जाए वह प्रेम नहीं, पर आसक्ति कहलाता है ! जिसमें कोई अपेक्षा नहीं, स्वार्थ नहीं, मतलब नहीं या दोषदृष्टि नहीं, निरंतर एक समान रहे, फूल चढ़ाए वहाँ आवेग नहीं, गाली दे वहाँ अभाव नहीं, ऐसा अघट और अपार प्रेम, वही साक्षात् परमात्म प्रेम है ! ऐसे अनुपम प्रेम के दर्शन तो ज्ञानी पुरुष में या संपूर्ण वीतराग भगवान में होते है। मोह को भी अपने लोग प्रेम मानते हैं ! मोह में बदले की आशा होती है ! वह नहीं मिले तब जो अंदर विलाप होता है, उस पर से पता चलता है कि यह शद्ध प्रेम नहीं था ! प्रेम में सिन्सियारिटी होती है. संकचितता नहीं होती। माँ का प्रेम व्यवहार में उच्च प्रकार का कहा गया है। फिर भी, वहाँ भी किसी कोने में अपेक्षा और अभाव आते हैं। मोह होने के कारण आसक्ति ही कहलाती है! ___ बेटा बारहवीं कक्षा में नब्बे प्रतिशत मार्क्स लाया हो तो माँ-बाप खुश होकर पार्टी देते हैं और बेटे की होशियारी के बखान करते नहीं थकते! और उसे स्कूटर ला देते हैं। वही बेटा चार दिन बाद फिर स्कूटर टकरा दे, स्कूटर का कचरघान कर डाले तो वे ही माँ-बाप उसे क्या कहते हैं? बगैर अक्कल का है, मूर्ख है, अब तुझे कुछ नहीं मिलेगा! चार दिन में तो सर्टिफिकेट वापिस ले लिया ! प्रेम सारा ही उतर गया! इसे तो कहीं प्रेम कहा जाता है? व्यवहार में भी बालक, नौकर या कोई भी प्रेम से ही वश हो सकता है, दूसरे सब हथियार बेकार सिद्ध होते है अंत में तो! इस काल में ऐसे प्रेम के दर्शन हज़ारों को परमात्म प्रेम स्वरूप श्री दादा भगवान में हुए। एक बार जो कोई उनकी अभेदता चखकर गया, वह निरंतर उनके निदिध्यासन या तो उनकी याद में रहता है, संसार की सब जंजालों में जकड़ा हुआ होने के बावजूद भी! हजारों लोगों को पूज्यश्री वर्षों तक एक क्षण भी बिसरते नहीं, वह इस काल का महान आश्चर्य है!! हज़ारों लोग पूज्यश्री के संसर्ग में आए, पर उनकी करुणा, उनका प्रेम हर एक पर बरसता हुआ सबने अनुभव किया। हर एक को ऐसा ही लगता है कि मुझ पर सबसे अधिक कृपा है, राजीपा (गुरजनों की कृपा और प्रसन्नता) है! और संपूर्ण वीतरागों के प्रेम की तो वर्ल्ड में कोई मिसाल ही न मिले! एक बार वीतराग के, उनकी वीतरागता के दर्शन हो जाएँ, वहाँ खुद सारी ज़िन्दगी समर्पण हो जाए। उस प्रेम को एक क्षण भी भूल न सके ! सामनेवाला व्यक्ति किस प्रकार आत्यंतिक कल्याण को पाए, निरंतर उसी लक्ष्य के कारण यह प्रेम, यह करुणा फलित होती हुई दिखती है। जगत् ने देखा नहीं, सुना नहीं, श्रद्धा में नहीं आया, अनुभव नहीं किया, ऐसा परमात्म प्रेम प्रत्यक्ष में प्राप्त करना हो तो प्रेमस्वरूप प्रत्यक्ष ज्ञानी की ही भजना करनी। बाकी, वह शब्दों में किस तरह समाए?! - डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद

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