Book Title: Prem
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 10
________________ दादाश्री : मोहवाला प्रेम तो बेकार है सारा। तब ऐसे प्रेम में मत फँसना। परिभाषावाला प्रेम होना चाहिए। प्रेम के बिना मनुष्य जी नहीं सकता, वह बात सच्ची है, पर प्रेम परिभाषावाला होना चाहिए। प्रेम की परिभाषा आपको समझ में आई? वैसा प्रेम ढूंढो। अब ऐसा प्रेम मत ढूंढना कि कल सुबह वह डायवोर्स ले ले। इनके क्या ठिकाने?! प्रश्नकर्ता : प्रेम और मोह, उसमें मोह में न्योछावर होने में बदले की आशा है और इस प्रेम में बदले की आशा नहीं है, तो प्रेम में न्योछावर हो जाए तो पूर्ण पद को प्राप्त करेगा? दादाश्री : इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति सत्य प्रेम की शुरूआत करे तो भगवान हो जाए। सत्य प्रेम बिना मिलावटवाला होता है। उस सत्य प्रेम में विषय नहीं होता, लोभ नहीं होता, मान नहीं होता। वैसा बिना मिलावटवाला प्रेम, वह भगवान बना देता है, संपूर्ण बना देता है। रास्ते तो सभी आसान है, पर ऐसा होना मुश्किल है न! प्रश्नकर्ता : उसी प्रकार किसी भी मोह के पीछे जीवन न्योछावर करने की शक्ति ले तो परिणामस्वरूप पूर्णता आती है? तो वह ध्येय की पूर्णता को प्राप्त करता है? दादाश्री : यदि मोह के पीछे न्योछावर करे तब तो फिर मोह ही प्राप्त करेगा और मोह ही प्राप्त किया है न लोगों ने! प्रश्नकर्ता : ये लड़के-लड़कियाँ प्रेम करते हैं अभी के जमाने में, वे मोह से करते हैं इसलिए फेल होते हैं? दादाश्री : सिर्फ मोह ! ऊपर चेहरा सुंदर दिखता है, इसलिए प्रेम दिखता है, पर वह प्रेम कहलाता नहीं न! अभी यहाँ पर एक फँसी हो जाए न तो पास में जाए नहीं फिर। यह तो आम अंदर से चखकर देखें न तब पता चले। मुँह बिगड़ जाए तो बिगड़ जाए पर महीने तक खाने का अच्छा नहीं लगता। यहाँ बारह महीनों तक इतनी बड़ी फँसी हो जाए न तो मुँह न देखे, मोह छूट जाए और जब सच्चा प्रेम हो तो एक फँसी, अरे दो फुसियाँ हों, तब भी न छूटे। तो ऐसा प्रेम ढूंढ निकालना। नहीं तो शादी ही मत करना। नहीं तो फँस जाओगे। फिर वह मुँह चढ़ाएगी तब कहेंगे, 'इसका मुँह देखना मुझे पसंद नहीं है।''अरे, अच्छा देखा था उससे तुझे पसंद आया था न, अब ऐसा नहीं पसंद?' यह तो मीठा बोलते हैं न इसलिए पसंद आता है। और कड़वा बोले तो कहेंगे, 'मुझे तेरे साथ पसंद ही नहीं लगता।' प्रश्नकर्ता : वह भी आसक्ति ही है न? दादाश्री : सभी आसक्ति। पसंद आया और नहीं पसंद, पसंद आया और नहीं पसंद' ऐसे कलह करता रहता है। ऐसे प्रेम का क्या करना? मोह में दगा-मार बहत मार खाएँ तब जो मोह था न वह मोह छुट जाता है सारा। सिर्फ मोह ही था। उसका ही मार खाते रहे हैं। प्रश्नकर्ता : मोह और प्रेम, इन दोनों के बीच की भेदरेखा क्या है? दादाश्री : यह पतंगा है न, यह पतंगा दीये के पीछे पड़कर और याहोम हो जाता है न? वह खुद की जिन्दगी खतम कर डालता है, वह मोह कहलाता है। जब कि प्रेम टिकता है, प्रेम टिकाऊ होता है, वह मोह नहीं होता। मोह मतलब यूज़लेस जीवन। वह तो अंधे होने के बराबर है। अंधा व्यक्ति कीड़े की तरह घूमता है और मार खाता है, उसके जैसा। और प्रेम तो टिकाऊ होता है। उसमें तो सारी ज़िन्दगी का सुख चाहिए होता है। वह तात्कालिक सुख ढूंढे ऐसा नहीं न! यानी यह सब मोह ही है न! मोह मतलब खुला दगा-मार। मोह मतलब हंड्रेड परसेन्ट दगे निकले हैं। प्रश्नकर्ता : पर यह मोह है और यह प्रेम है ऐसा सामान्य व्यक्ति

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