Book Title: Prem
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 18
________________ 26 आसक्ति वहाँ रिएक्शन ही प्रश्नकर्ता : परन्तु बहुत बार हमें द्वेष नहीं करना हो तब भी द्वेष हो जाता है, उसका क्या कारण? दादाश्री : किसके साथ? प्रश्नकर्ता : कभी पति के साथ ऐसा हो तो? दादाश्री : वह द्वेष नहीं कहलाता। हमेशा ही जो आसक्ति का प्रेम है न, वह रिएक्शनरी है। इसीलिए यदि चिढ़ें तब ये वापिस उल्टे चलते हैं। उल्टे चले इसलिए फिर थोड़े समय अलग रहे कि वापिस प्रेम चढ़ता है। और वापिस प्रेम लगे, तब टकराव होता है। और इसलिए फिर वापिस प्रेम बढ़ता है। जब बहुत अधिक प्रेम हो वहाँ गड़बड़ होती है। इसलिए जहाँ कोई भी गड़बड़ चला करती हो न, वहाँ भीतर प्रेम है इन लोगों को! वह प्रेम हो तो ही बखेड़ा होता है। पूर्व भव का प्रेम है तो बखेड़ा होता है। बहुत अधिक प्रेम है। नहीं तो बखेड़ा हो ही नहीं न! इस बखेड़े का स्वरूप ही यह है। उसे लोग क्या कहते हैं? 'टकराव होने से तो हमारा प्रेम होता है।' तब वह बात सच है पर। वहाँ आसक्ति टकराव से ही हई है। जहाँ टकराव कम है, वहाँ आसक्ति नहीं होती। जिस घर में स्त्री-पुरुष के बीच टकराव कम होता है वहाँ आसक्ति कम है, ऐसा मान लेना। समझ में आए ऐसी बात है? प्रश्नकर्ता : हाँ। और बहुत आसक्ति हो वहाँ अनदेखाई भी अधिक होती है न? दादाश्री : वह तो आसक्ति में से ही सभी झमेला खड़ा होता है। जिस घर के दोनों जने आमने-सामने बहुत लड़ते हों न, तो हम समझ जाएँ कि यहाँ आसक्ति अधिक है। इतना समझ जाना। इसलिए फिर हम नाम क्या रखते हैं? 'लड़ते हैं ऐसा नहीं कहते। तमाचा मारे आमने-सामने, तो भी हम उसे 'लड़ते हैं' ऐसा नहीं कहते। हम उसे तोतामस्ती कहते हैं। तोता ऐसे चोंच मारता है, (वो ऐसे चोंच मारता है) तब दूसरा तोता ऐसे चोंच मारता है, पर अंत में खून नहीं निकालते। हाँ, वह तोतामस्ती ! आपने नहीं देखी है तोतामस्ती? अब ऐसी सच्ची बात सुनें तब हमें अपनी भूलों पर और अपनी मूर्खता पर हँसना आता है। सच्ची बात सुने तब मनुष्य को वैराग आता है कि हमने ऐसी भूलें की?! अरे, भूलें ही नहीं, पर मार भी बहुत खाई! दोष, आक्षेप वहाँ प्रेम कहाँ से? जगत् आसक्ति को प्रेम मानकर उलझता है। स्त्री को पति के साथ काम और पति को स्त्री के साथ काम, ये सब काम से ही खडा हुआ है। काम नहीं हो तो अंदर सभी चिल्लाते हैं, हल्ला करते हैं। संसार में एक मिनट भी अपना कोई हुआ ही नहीं है। अपना कोई होता नहीं है। वह तो जब अटके तब पता चले। एक घंटा बेटे को हम डॉट तब पता चले कि बेटा अपना है या पराया है? दावा दायर करने के लिए भी तैयार हो जाता है। तब बाप भी क्या कहता है? 'मेरी अपनी कमाई है। तुझे एक पाई नहीं दूंगा' कहेगा। तब बेटा कहेगा. 'मैं आपको मार-ठोककर लँगा।' इसमें पोतापणुं (मैं हूँ और मेरा है-ऐसा आरोपण/मेरापन) होता होगा? एक ज्ञानी पुरुष ही अपने होते हैं। बाकी. इसमें प्रेम जैसी वस्त ही नहीं है। इस संसार में प्रेम मत ढूंढना। किसी जगह पर प्रेम होता नहीं। प्रेम तो ज्ञानी पुरुष के पास होता है। दूसरे सभी जगह तो प्रेम उतर जाता है और फिर लड़ाई-झगड़े होते हैं बाद में। लड़ाई-झगड़े होते हैं या नहीं होते? वह प्रेम नहीं कहलाता। वह आसक्ति है सारी। उसे अपने जगत् के लोग प्रेम कहते हैं। उल्टा ही बोलना वह धंधा! प्रेम का परिणाम, झगड़े नहीं होते। प्रेम उसीका नाम कि किसीका दोष न दिखे। प्रेम में कभी भी सारी ज़िन्दगी में बेटे का दोष नहीं दिखता, पत्नी का दोष नहीं दिखता, उसका नाम प्रेम कहलाता है। प्रेम में दोष दिखते ही नहीं उसे और यह तो लोगों को कितने दोष दिखते हैं? 'तू ऐसी और

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