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प्रवचनसार
निमित्ततामुपगतात् स्वविषयमुपगतस्यार्थस्य परिच्छेदनं तत् परतः प्रादुर्भवत्परोक्षमित्यालक्ष्यते ।
यत्पुनरन्त:करणमिन्द्रियं परोपदेशमुपलब्धिसंस्कारमालोकादिकं वा समस्तमपि परद्रव्यमनपेक्ष्यात्मस्वभामेवैकं कारणत्वेनोपादाय सर्वद्रव्यपर्यायजातमेकपद एवाभिव्याप्य प्रवर्तमानं परिच्छेदनं तत् केवलादेवात्मनः संभूतत्वात् प्रत्यक्षमित्यालक्ष्यते ।
इह हि सहजसौख्यसाधनीभूतमिदमेव महाप्रत्यक्षमभिप्रेतमिति ।। ५८ । ।
निमित्तभूत परद्रव्यरूप इन्द्रियाँ, मन, परोपदेश, उपलब्धि (ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम), संस्कार या प्रकाश आदि के द्वारा होनेवाला स्व- विषयभूत पदार्थों का ज्ञान पर के द्वारा होने से परोक्ष कहा जाता है ।
अंत:करण, इन्द्रियाँ, परोपदेश, उपलब्धि, संस्कार या प्रकाश आदि सभी परद्रव्यों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारणरूप से ग्रहण करके सभी द्रव्य और उनकी सभी पर्यायों में एक समय में ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष कहा जाता है ।
यहाँ इस गाथा में यही अभिप्रेत है कि सहजसुख का साधनभूत यह महाप्रत्यक्षज्ञान (केवलज्ञान) ही उपादेय है। "
यहाँ महाप्रत्यक्ष शब्द प्रयोग सकल प्रत्यक्ष अर्थात् सर्वदेश प्रत्यक्ष के अर्थ में ही किया गया है । शास्त्रों में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान को भी प्रत्यक्ष माना गया है; पर ये दोनों ज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं, मात्र रूपी पदार्थ को ही जानते हैं, पुद्गल को ही जानते हैं, आत्मा को नहीं जानते । अतः ये देशप्रत्यक्षज्ञान सहजसुख के साधन नहीं हैं।
पर के सहयोग बिना आत्मा सहित लोकालोक को जाननेवाला केवलज्ञान ही सहजसुख का साधन है। यह बताने के लिए ही यहाँ महाप्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है ।
इन गाथाओं में सबकुछ मिलाकर मात्र इतना ही कहा गया है कि इन्द्रियाँ, प्रकाश, क्षयोपशमरूप लब्धि, संस्कार आदि परद्रव्यों के सहयोग से होनेवाला ज्ञान परोक्षज्ञान है और पर के सहयोग बिना सीधा आत्मा से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान है।
पराधीनता का सूचक परोक्षज्ञान अतीन्द्रिय सुख का कारण नहीं हो सकता; अतीन्द्रियसुख का कारण तो अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान ही है ।। ५७-५८ ।।