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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
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अनुभूति के काल की वृद्धि और अनुभूति के वियोगकाल का निरंतर कम होते जाना ही वह पुरुषार्थ है कि जो चारित्रमोह संबंधी उक्त कर्मप्रवृत्तियों को शिथिल करेगा।
अत: शुद्धोपयोग के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही एक मात्र रास्ता है।।८१||
८०वीं व ८१वीं गाथा में मोहक्षय का उपाय बताने के उपरान्त अब इस ८२वीं गाथा में उपसंहार के रूप में कहते हैं कि आजतक जो भी अरहंत हुए हैं; उन सभी ने उक्त उपाय से मोह
अथायमेवैको भगवद्भिः स्वयमनुभूयोपदर्शितो निःश्रेयसस्य पारमार्थिकः पन्थाइति मतिं व्यवस्थापयति -
सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा। किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं ।।८२।।
सर्वेऽपि चाहन्तस्तेन विधानेन क्षपितकांशाः ।
कृत्वा तथोपदेशं निर्वृतास्ते नमस्तेभ्यः ।।८२।। यत: खल्वतीतकालानुभूतक्रमप्रवृत्तयः समस्ता अपिभगवन्तस्तीर्थंकरा:, प्रकारान्तरस्यासंभवादसंभावितद्वैतेनामुनैवैकेन प्रकारेण क्षपणं कर्मांशानां स्वयमनुभूय, परमाप्ततया परेषामप्यायत्यामिदानीत्वे वा मुमुक्षूणां तथैव तदुपदिश्य निःश्रेयसमध्याश्रिताः, ततो नान्यद्वर्त्म निर्वाणस्येत्यवधार्यते। अलमथवा प्रलपितेन । व्यवस्थिता मतिर्मम । नमो भगवद्भ्यः ।।८२।। कानाश किया है और दिव्यध्वनि द्वारा इसीमार्गकोभव्यजीवोंको बताया है। उक्त निर्णय के आधार पर मति को व्यवस्थित करते हुए आचार्यदेव अरहंत भगवान को नमस्कार करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी।
सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ।।८२|| सभी अरहंत भगवान इसी विधि से कर्मों का क्षय करके तथा उसीप्रकार उपदेश करके मोक्ष को प्राप्त हुए हैं; अत: उन्हें नमस्कार हो।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार व्यक्त करते हैं
“अतीतकाल में क्रमश: हुए समस्त तीर्थंकर भगवान प्रकारान्तर का असंभव होने से जिसमें द्वैत संभव नहीं है; ऐसे इसी एक प्रकार से कर्मांशों का क्षय करके स्वयं अनुभव करके परमाप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवाइस वर्तमान काल में अन्य मुमुक्षुओंकोभी