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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
अथ श्रमणो भवितुमिच्छन् पूर्वं किं किं करोतीत्युपदिशति । अथातः कीदृशो भवतीत्युप
दिशति
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आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं । । २०२ ।। समणं गणिं गुणड्ढं कुलरूववयोविसिट्टमिट्ठदरं । समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो । । २०३ ।। आपृच्छ्य बन्धुवर्गं विमोचितो गुरुकलत्रपुत्रैः । ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारम् । । २०२ ।।
आसाद्य
श्रमणं गणिनं गुणाढ्यं कुलरूपवयोविशिष्टमिष्टतरम् । श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ।।२०३ ।।
३९३
यो हि नाम श्रमणो भवितुमिच्छति स पूर्वमेव बन्धुवर्गमापृच्छते, गुरुकलत्रपुत्रेभ्य आत्मानं विमोचयति, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासीदति ।
तथाहि – एवं बन्धुवर्गमापृच्छते, अहो इदंजनशरीरबन्धुवर्गवर्तिन आत्मान:, अस्य जनस्य गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
वृद्धजन तिय- पुत्र- बंधुवर्ग से ले अनुमति ।
वीर्य - दर्शन-ज्ञान-तप चारित्र अंगीकार कर ॥ २०२॥
रूप कुल वयवान गुणमय श्रमणजन को इष्ट जो ।
ऐसे गणी को नमन करके शरण ले अनुग्रहीत हो ॥ २०३ ॥
दीक्षार्थी सबसे पहले बन्धुवर्ग से पूँछकर, माता-पिता आदि बड़ों से एवं स्त्री-पुत्रादि से छूटकर, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को अंगीकार करके कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट, गुणाढ्य और श्रमणों को अति इष्ट गणी श्रमण से 'मुझे स्वीकार करो' - ऐसा कहकर प्रणाम करता है और अनुग्रहीत होता है ।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए तत्त्वप्रदीपिका टीका में लिखते
“जो श्रमण होना चाहता है; वह पहले अपने बन्धुवर्ग से पूछता है, विदा लेता है; मातापिता आदि गुरुजनों (बड़े-बूढों) से और स्त्री-पुत्रादि से अपने को छुड़ाता है और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है ।