Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 565
________________ ५६० प्रवचनसार क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टिलब्धनिधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ।।४।। ज्ञाननयेन चणकमुष्टिक्रीतचिन्तामणिगृहकोणवाणिजवद्विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ।।४३।। अनन्तधर्मात्मक इस भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक भोक्तृ नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा अपनी भूल से अपने में ही उत्पन्न होनेवाले सुख-दु:ख एवं हर्ष-शोक को भोगता है और एक अभोक्तृ नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा अपने में उत्पन्न होनेवाले सुख-दु:ख एवं हर्ष-शोक को भोगता तो नहीं, मात्र साक्षीभाव से जानता-देखता ही है। भगवान आत्मा के इन भोक्तृ और अभोक्तृ धर्मों को विषय बनानेवाले नय ही क्रमशः भोक्तृनय और अभोक्तृनय हैं। शेष सब कर्तृनय और अकर्तृनय के प्रकरण में स्पष्ट किया जा चुका है, तदनुसार इन भोक्तृनय और अभोक्तृनय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए; क्योंकि कर्तृत्व और भोक्तृत्व का स्पष्टीकरण सर्वत्र समान ही पाया जाता है। इन कर्तृ-अकर्तृ और भोक्तृ-अभोक्तृ नयों का प्रतिपाद्य मात्र इतना ही कि यह भगवान आत्मा राग-द्वेषादि भावों को करता भी है और उनके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले सुखदुःख को भोगता भी है तथा इन सबका साक्षीभाव से ज्ञाता-द्रष्टा भी रहता है; अत: कर्ताभोक्ता के साथ-साथ अकर्ता-अभोक्ता भी है।।४०-४१|| इसप्रकार भोक्तृनय और अभोक्तृनय की चर्चा के उपरान्त अब क्रियानय और ज्ञाननय की चर्चा करते हैं - “आत्मद्रव्य, क्रियानय से खम्भे से टकरा जाने से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर निधान मिल गया है जिसे - ऐसे अंधे के समान, अनुष्ठान की प्रधानता से सधने वाली सिद्धि वाला है और ज्ञाननय से, मुट्ठी भर चने देकर चिन्तामणि रत्न खरीद लेने वाले घर के कोने में बैठे हुए व्यापारी के समान, विवेक की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है।।४२-४३॥" एक अंधा व्यक्ति सहज धार्मिक भावना से प्रेरित होकर मन्दिर जा रहा था। रास्ते में अचानक वह एक खम्भे से टकरा गया, जिससे उसका सिर फूट गया और बहुत-सा खराब खून निकल जाने से उसे एकदम स्पष्ट दिखाई देने लगा, उसका अन्धापन समाप्त हो गया। खम्भे से टकराने से उसका सिर तो फूटा ही, साथ ही वह खम्भा भी टूट गया। उस खम्भे

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