Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 571
________________ ५६६ प्रवचनसार तदुक्तम् - "जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया।। परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा। जइणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ।।" एवमनया दिशाप्रत्येकमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयैर्निरुप्यमाणमुदन्वदन्तरालमिलद्धवलनीलगाङ्गयामुनोदकभारवदनन्तधर्माणां परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्यविवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकधर्मित्वाद्यथोदितैकान्तात्मात्मद्रव्यम्। युगपदनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणेन निरूप्यमाणं तु समस्ततरङ्गिणीयपयःपूरसमवायात्मकैकमकराकरवदन्तधर्माणां वस्तुत्वेनाशक्यविवेचनत्वान्मेचकस्वभावानन्तधर्मव्याप्येकधर्मित्वात् यथोदितानेकान्तात्मात्मद्रव्यम्।। इसलिए कहा है - "जितने वचनपंथ हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय (परमत) हैं। परसमय अर्थात् मिथ्यामतियों के वचन सर्वथा अर्थात् अपेक्षा बिना कहे जाने से मिथ्या हैं और स्वसमय जैनियों के वचन कथंचित् अर्थात् अपेक्षासहित होने से सम्यक् हैं।" इसप्रकार उक्त ४७ नयों के कथनानुसार एक-एक धर्म में एक-एक नय के व्यापने पर अनन्तधर्मों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किये जाने पर, समुद्र के भीतर मिलनेवाले सफेद और नीले गंगा-जमुनी जल-समूह के समान, अनन्त धर्मों को परस्पर अतद्भाव मात्र से पथक करने में अशक्य होने से आत्मद्रव्य अमेचक (एक) स्वभाववाला, एक द्रव्य में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होने से एकान्तात्मक (एक धर्मरूप) है। किन्तु युगपत् अनंत धर्मों में व्यापक ऐसे अनंत नयों में व्याप्त एक श्रुतज्ञान प्रमाण से जलसमूह के समुदायरूप एक समुद्र के समान, अनंत धर्मों को वस्तुरूप से पृथक् करना अशक्य होने से आत्मद्रव्य मेचक (अनेक) स्वभाववाला, अनंत धर्मों में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होने से अनेकान्तात्मक (अनेक धर्मरूप) है। ___ तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार एक नदी के जल को जाननेवाले ज्ञानांश से देखा जाय तो समुद्र एक नदी के जलस्वरूप दिखाई देता है; उसीप्रकार एक नय से देखा जाय तो आत्मा एक धर्मस्वरूप दिखाई देता है; परन्तु जिसप्रकार एक ही साथ सभी नदियों के जल को जाननेवाले ज्ञान से देखा जाय तो समुद्र सभी नदियों के जलस्वरूप

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