Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 572
________________ परिशिष्ट : सैंतालीस नय ५६७ (शालिनी) स्यात्कारश्रीवासवश्यैर्नयौघैः पश्यन्तीत्थं चेत् प्रमाणेन चापि। पश्यन्त्येव प्रस्फुटानन्तधर्मस्वात्मद्रव्यं शुद्धचिन्मात्रमन्तः ।।१९।। इत्यभिहितमात्मद्रव्यमिदानीमेतदवाप्तिप्रकारोऽभिधीयते - अस्य तावदात्मनो नित्यमेवानादिपौद्गलिककर्मनिमित्तमोहभावनानुभावपूर्णितात्मवृत्तितया तोयाकरस्येवात्मन्येव क्षुभ्यत: क्रमप्रवृत्ताभिरनन्ताभिर्भप्तिव्यक्तिभिः परिवर्तमानस्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु प्रवृत्तमैत्रीकस्य शिथिलतात्मविवेकतयात्यन्तबहिर्मुखस्य पुन: पौद्गलिककर्मनिर्मापकरागद्वेषद्वैतमनुवर्तमानस्य दूरत एवात्मावाप्तिः । ___अथ यदा त्वयमेव प्रचण्डकर्मकाण्डोच्चण्डीकृताखण्डज्ञानकाण्डत्वेनानादिपौद्गलिकदिखाई देता है; उसीप्रकार एक साथ सभी धर्मों को जाननेवाले श्रुतज्ञानप्रमाण से देखा जाय तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है। इसप्रकार एक नय से देखने पर आत्मा एकान्तात्मक है और प्रमाण से देखने पर अनेकान्तात्मक है। अब इसी आशय का कलश लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) स्याद्वादमय नयप्रमाणसे दिखे न कुछ भी अन्य | अनंतधर्ममय आत्म में दिखे एक चैतन्य ||१९|| इसप्रकार यदि हम स्यात्काररूपी लक्ष्मी के निवास के वशीभूत वर्तते नयसमूहों से देखे तो और प्रमाण से देखें तो भी स्पष्ट अनन्त धर्मों वाले निज आत्मद्रव्य को भीतर से शुद्ध चेतनमात्र ही देखते हैं। इसप्रकार आत्मद्रव्य की चर्चा हुई; अब उसकी प्राप्ति का उपाय बताते हैं; जोइसप्रकार है-अनादि पौदगलिककर्मनिमित्तक मोहभावना के प्रभाव से चक्कर खाती आत्मपरिणति वाला आत्मा समुद्र की भांति क्षुब्ध होता हुआ क्रमशः प्रवर्तमान अनंत ज्ञप्तिव्यक्तियों (ज्ञानपर्यायों) से परिवर्तन को प्राप्त होता है; इसलिए उसकी मैत्रीज्ञप्तिव्यक्तियों के निमित्तरूप ज्ञेयभूत बाह्य पदार्थव्यक्तियों के प्रति वर्तती है। यही कारण है कि शिथिल आत्मविवेकवाला वह अत्यन्त बहिर्मुख आत्मा पौद्गलिक कर्मों के निर्माता राग-द्वेष के द्वैतरूप परिणमित होता है; इसलिए उस अज्ञानी आत्मा को आत्मप्राप्ति अत्यन्त दूर है। परन्तु जब वही आत्मा प्रचंड कर्मकाण्ड द्वारा प्रचण्डीकृत अखण्ड ज्ञानकाण्ड से अनादि

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