Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 544
________________ परिशिष्ट : सैंतालीस नय सर्वगतनयेनविस्फारिताक्षचक्षुर्वत्सर्ववर्ति।।२०।। असर्वगतनयेन मीलिताक्षचक्षुर्वदात्मवति॥२१॥ भले ही विरोधी दिखते हों, पर विरोधी हैं नहीं; क्योंकि एक ही काल में यदि हम उसे स्वाँग की अपेक्षा देखेंगे तो राम दिखेगा और स्वाँगधा की अपेक्षा देखेंगे तो नट दिखेगा। रमेश नामक नट राम का पाठ कर रहा हो, उस समय कोई प्रश्न करे :- 'यह कौन है?' तो इसके एक साथ दो उत्तर दिये जा सकते हैं; कोई कहे राम और कोई कहे रमेश । दोनों में से एक भी उत्तर गलत नहीं है; क्योंकि वह राम और रमेश एकसाथ है। ठीक इसीप्रकार आत्मा में रहनेवाले नित्य और अनित्य धर्म भले ही विरोधी प्रतीत होते हों, पर वे परस्पर विरोधी नहीं हैं; क्योंकि वे दोनों एकसाथ एक आत्मा में रहते हैं। यह भगवान आत्मा द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु है; अत: द्रव्यदृष्टि से नित्य है और पर्यायदृष्टि से अनित्य है। ऐसा नित्य-अनित्य होनेरूप इसका स्वभाव ही है। स्थायीरूप रहने के स्वभाव को नित्यधर्म कहते हैं और बदलते रहनेरूप स्वभाव को अनित्यधर्म कहते हैं। इन नित्य-अनित्य धर्मों को जाननेवाले ज्ञान को या कहनेवाले वचनों को क्रमश: नित्यनय और अनित्यनय कहा जाता है।।१८-१९ ।। नित्यनय और अनित्यनय की चर्चा के उपरान्त अब यहाँ सर्वगत और असर्वगतनय की चर्चा आरंभ करते हैं - “आत्मद्रव्य सर्वगतनय से खुली हुई आँख की भाँति सर्ववर्ती (सब में व्याप्त होनवाला) है और असर्वगतनय से मींची हुई (बंद) आँख की भाँति (आत्मवर्ती) अपने में रहनेवाला है।।२०-२१।।” जिसप्रकार सब में घूमने-फिरनेवाली होने से खुली आँख को सर्वगत कहा जाता है; उसीप्रकार सबको देखने-जानने के स्वभाववाला होने से भगवान आत्मा को सर्वगत कहा जाता है। जिसप्रकार बन्द आँख अपने में ही रहती है; उसीप्रकार सबको देखने-जानने के स्वभाववाला होने पर भी, सबको देखते-जानते हुए भी, भगवान आत्मा अपने असंख्य प्रदेशों के बाहर नहीं जाता, अपने में ही रहता है; अतः असर्वगत है, आत्मगत है। इसप्रकार सर्वगतनय से आत्मा सर्वगत है और असर्वगतनय से आत्मगत है, असर्वगत है।

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