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प्रवचनसार
समस्तानुभाववन्तो भगवन्तः शुद्धा एवासंसारघटितविकटकर्मकवाटविघटनपटीयसाध्यवसायेन प्रकटीक्रियमाणावदानामोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ।।२७३।। अथ मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वं सर्वमनोरथस्थानत्वेनाभिनन्दयति -
सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ।।२७४।।
शुद्धस्य च श्रामण्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम्।
शुद्धस्य च निर्वाणं स एव सिद्धो नमस्तस्मै ।।२७४।। यत्तावत्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रयौगपद्यप्रवृत्तैकाग्र्यलक्षणं साक्षान्मोक्षमार्गभूतं श्रामण्यं तच्च नहीं होनेवाले सकल महिमावान भगवान शुद्ध हैं, शुद्धोपयोगी हैं; उन्हें ही मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व जानना चाहिए; क्योंकि वे अनादि संसार से बंद, विकट, कर्मकपाट (कर्मरूपी किवाड़) को तोड़ने-खोलने के अति प्रयत्न से पराक्रम प्रगट कर रहे हैं।"
२७२वीं गाथा में भावलिंगी श्रमणों को मोक्षतत्त्व कहा था और अब इस २७३वीं गाथा में उन्हीं को मोक्ष का साधनतत्त्व कहा जा रहा है, मोक्षमार्ग कहा जा रहा है। इसका सीधा-सच्चा अर्थ यह है कि निज भगवान आत्मा को जानकर, पहिचानकर, उसी में अपनापन स्थापित कर, उसी में समा जानेवाले नग्न दिगम्बर श्रमण ही मोक्ष तत्त्व हैं और वे ही मोक्षमार्ग तत्त्व हैं। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण धर्मतत्त्व भावलिंगी नग्न दिगम्बर सन्तों में ही समाहित है।।२७३ ।। ___ विगत गाथा में जिन शुद्धोपयोगी श्रमणों को मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व के रूप में स्थापित किया गया है; अब इस गाथा में उन्हीं शुद्धोपयोगी श्रमणों का सर्व मनोरथों के स्थान के रूप में अभिनन्दन करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) है ज्ञान-दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है।
हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है।।२७४।। शुद्ध अर्थात् शुद्धोपयोगी को श्रामण्य कहा है, शुद्ध को ही दर्शन और ज्ञान कहा है और शुद्ध कोही निर्वाण होता है। सिद्ध होनेवाले शुद्धोपयोगियों को और सिद्धों को बारम्बार नमस्कार हो।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूप से प्रवर्तमान एकाग्रता लक्षण साक्षात् मोक्षमार्गरूप श्रामण्य शुद्ध (शुद्धोपयोगी) के ही होता है। समस्त भूत, वर्तमान और