Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 540
________________ परिशिष्ट : सैंतालीस नय ५३५ पूजन कराते हुए प्रतिष्ठाचार्य भी यह कहते हुए सुने जाते हैं कि सभी पुजारी हाथ में अर्घ ले लें. साथ में उन्हीं पजारियों में से किसी से यह भी कहते देखा जा सकता है कि सेठजी! आपने अर्घ क्यों नहीं लिया ? भूतकालीन एवं भविष्यकालीन तीर्थंकरों की मूर्तिप्रतिष्ठा स्थापनानय के साथ-साथ द्रव्यनय का विषय भी है; क्योंकि स्थापनानय तो मात्र पौद्गलिकमूर्ति में चेतन परमात्मा की प्रतिष्ठा को विषय बनायेगा, पर यहाँ तो जिन तीर्थंकर आत्माओं की जिस अरहंतपर्याय की स्थापना मूर्ति में की जा रही है, वे आत्मा वर्तमान में उस पर्यायरूप से परिणमित नहीं हो रहे हैं, उनमें से भूतकालीन तीर्थंकर तो वर्तमान में सिद्धपर्यायरूप से परिणमित हो रहे हैं और भावी तीर्थंकर अभी देवादि किसी पर्याय में होंगे। अतः आत्मा को भूतकालीन और भविष्यकालीन पर्यायों के रूप में देखनेवाला द्रव्यनय के बिना भूतकालीन और भविष्यकालीन तीर्थंकरों की प्रतिष्ठा का व्यवहार संभव नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर जिन्हें हम वर्तमान चौबीसी कहते हैं, वे ऋषभादि तीर्थंकर भी भूतकालीन ही हैं; क्योंकि वे वर्तमान में सिद्धदशा में ही हैं। वर्तमानदशारूप परिणमित तो सीमन्धरादि विद्यमान बीस तीर्थंकर ही हैं; क्योंकि वे ही अभी अरहंत-अवस्था में विद्यमान हैं। ___ अत: सीमन्धरादि तीर्थंकर अरहंतों की प्रतिष्ठा स्थापनानय एवं द्रव्यनय के आश्रित है। नामनय का उपयोग तो अनिवार्य है ही; क्योंकि इसके बिना तो यह कहना ही संभव नहीं कि यह प्रतिमा अमुक तीर्थंकर की है। इसप्रकार मूर्तिप्रतिष्ठा का समस्त व्यवहार नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भावनयों के आधार पर प्रचलित व्यवहार है। यही कारण है कि निक्षेप की परिभाषा इसप्रकार दी गई है कि नयों के द्वारा प्रचलित लोकव्यवहार को निक्षेप कहते हैं। इसप्रकार का लोकव्यवहार मात्र जिनेन्द्रप्रतिष्ठाओं में ही नहीं, अपितु लोक के अन्य व्यवहारों में भी प्रचलित है। चित्रकला, मूर्तिमाला आदि अनेक चीजों का आधार यही नय है। इसप्रकार हम देखते हैं कि नामधर्म, स्थापनाधर्म, द्रव्यधर्म और भावधर्म - आत्मा के ये चार धर्म ज्ञेय हैं और इनके आधार पर आत्मा को जाननेवाले श्रुतज्ञान के अंशरूप नामनय, स्थापनानय, द्रव्यनय और भावनय - ये चार नय ज्ञान हैं और इनके आधार पर प्रचलित लोकव्यवहार रूप चार निक्षेप हैं॥१२-१५॥

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