Book Title: Pravachansara
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 486
________________ चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार ४८१ अथ शुभोपयोगिनामेवैवंविधा: प्रवृत्तयो भवन्तीति प्रतिपादयति । अथ सर्वा एव प्रवृत्तयः शुभोपयोगिनामेव भवन्तीत्यवधारयति - दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य ।।२४८।। उवकुणदिजो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स। कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ।।२४९।। दर्शनज्ञानोपदेश: शिष्यग्रहणं च पोषणं तेषाम् । चर्या हि सरागाणां जिनेन्द्रपूजोपदेशश्च ।।२४८।। उपकरोति योऽपि नित्यं चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्य । कायविराधनरहितं सोऽपि सरागप्रधान: स्यात् ।।२४९।। अनुजिघृक्षापूर्वकदर्शनज्ञानोपदेशप्रवृत्तिः शिष्यसंग्रहणप्रवृत्तिस्तत्पोषणप्रवृत्तिर्जिनेन्द्रपूजोपदेशप्रवृत्तिश्च शुभोपयोगिनामेव भवन्ति, न शुद्धोपयोगिनाम् ।।२४८।। प्रतिज्ञातसंयमत्वात् षट्कायविराधनरहिता या काचनापि शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ता गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) उपदेश दर्शन-ज्ञान पूजन शिष्यजन का परिग्रहण| और पोषण ये सभी हैं रागियों के आचरण ||२४८|| तनविराधन रहित कोई श्रमण पर उपकार में। नित लगा हो तो जानना है राग की ही मुख्यता ||२४९|| सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण तथा उनका पोषण और जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश सरागियों की चर्या है। जो श्रमण काय की विराधना से रहित चार प्रकार के श्रमण संघ का नित्य उपकार करता रहता है, वह श्रमण भीराग की प्रधानतावालाही है। इन गाथाओं के भावको आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “अनुग्रह करने की भावनापूर्वक सम्यग्दर्शन-ज्ञान के उपदेश की प्रवृत्ति, शिष्य ग्रहण और उनके पोषण की प्रवृत्ति तथा जिनेन्द्र पूजन के उपदेश की प्रवृत्ति शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के नहीं। संयम की प्रतिज्ञा होने से छह काय के जीवों की विराधना से रहित, शुद्धात्मपरिणति के

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