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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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है। तात्पर्य यह है कि वह आत्मा शुभाशुभभावरूप भावकों और ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से रहित शुद्धोपयोगस्वभावी निर्लेप तत्त्व है।
उपयोगसंबंधी या लक्ष्य-लक्षण संबंधी उक्त ७वें से ११वें तक के पाँच बोलों को लक्ष्यलक्षण की मुख्यता से इसप्रकार समझ सकते हैं -
(१) उपयोग नामक लक्षण अपने आत्मा रूप लक्ष्य का आलम्बन लेता है; अत: उसे पर-पदार्थों के आलम्बन की क्या आवश्यकता है?
(२) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा में से ही आता है; अत: उसे पर-पदार्थों में से आने की क्या आवश्यकता है ?
(३) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा के आश्रय में ही रहता है; इसलिए उसका अपहरण कौन कर सकता है ?
(४) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा में ही एकाग्र होता है, परपदार्थों में एकाग्र नहीं होता; इसकारण उसमें मलिनता भी क्यों हो?
(५) उपयोग लक्षण अपने लक्ष्य आत्मा को ही ग्रहण करता है, पर-पदार्थों को ग्रहण नहीं करता; अत: वह पर से संयुक्त भी क्यों हो?
तात्पर्य यह है कि उपयोग नामक लक्षण न तो पर का आलम्बन लेता है, न पर में से आता है, न पर के द्वारा अपहृत होता है; न वह मलिन होता है और न वह पर से संयुक्त ही होता है।
१२-१३ - ‘आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है' - इस अर्थ में प्राप्त करानेवाले १२बोल में यह कहा गया है कि जिसके लिंग अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण अर्थात् उपभोग नहीं है; वह आत्मा अलिंगग्रहण है। ___ ‘आत्मा माता के रज और पिता के वीर्य के अनुसार होनेवाला नहीं हैं' - इस अर्थ की प्राप्ति करानेवाले १३वें बोल में यह कहा गया है कि जिस आत्मा के लिंग अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षणों के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवत्व धारण किये रहना नहीं है; वह आत्मा अलिंगग्रहण है। उपभोगसंबंधी उक्त दोनों बोलों का निष्कर्ष यह है कि आत्मा पंचेन्द्रिय के भोगों का भोक्ता नहीं है और स्पर्शन इन्द्रिय के भोग से मिले हुए रज और वीर्य की रचना भी नहीं है क्योंकि रज और वीर्य के सम्मिश्रण का फल तो देह की रचना है और आत्मा तो देह से पूर्णत: भिन्न ही है।
१४-१५ - मेहनाकार और अमेहनाकार संबंधी इन बोलों में यह स्पष्ट किया गया है कि