Book Title: Pravachansar Parmagam Author(s): Nathuram Premi Publisher: Dulichand Jain Granthmala View full book textPage 4
________________ [४] टीका। इनमेंसे तत्त्वदीपिका टीकाके आधारसे आगरा निवासी स्वर्गीय पंडित 'हेमराजजीने विक्रम संवत् १७०९ में शाहजहाँ वादशाहके राज्यकालमें भापा-चचनिका बनाई है। और इसी भापा-वचनिकाके आधारसे काशी निवासी कविवर वृन्दावनीने यह पद्यवद्ध टीका बनाई है। यह टीका उन्होंने संवत् १९०५ में अर्थात् आजसे ६० वर्ष पहले पूर्ण की थी। ____ कविवर वृन्दावनजीका जीवन चरित्र और उनके अन्योंकी आलोचना हमने जैन-हितैपीके गतवर्षके उपहार ग्रन्थ वृन्दावनविलासमें खूब विस्तारसे की है। इसलिये अब उनकी पुनरावृत्ति करनेकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती। जिन महाशयोंको पढ़नेकी रुचि हो, वे उक्त ग्रन्थ मँगाकर देख लें। इस ग्रन्थको हमने दो हस्तलिखित प्रतियोंके अनुसार संशोधन करके छपाया है। जिनमेंसे एक तो कविवर वृंदावनजीकी स्वयं हाथकी लिखी हुई प्रथम प्रति थी, जो हमें काशीके सरस्वती भंडारले प्राप्त हुई थी और दूसरी करहल निवासी पंडित धर्मसहायजीके द्वारा प्राप्त हुई थी। यह दूसरी प्रति भी पहलीके समान प्रायः शुद्ध है और शायद पहली प्रति परसे ही नकल की हुई है। कविवर वृन्दावनजीकी लेखन-शैली आदिसे अन्त तक एक सी नहीं मिलती। उन्होंने एक ही शब्दको कई प्रकारसे लिखा है। मैं में, हैं हे, तें तें तै, के के, नहिं नहि नहीं, होहिं होहिं होहि, लों सौं, त्यों त्यौं, कह्यो कह्यौ, विषै वि विपें, आदि जहाँ जैसा जीमें आया है इस प्रकार लिखा है। जान पड़ता है कि ऐसे शब्दोंके लिखनेका उन्होंने कोई नियम नहीं बनाया था, विकल्पसे वे सवको शुद्ध मानते थे। उनके लेखमें श, प और स की भी १ हेमराजजीने भी तीने ग्रन्थोंकी भाषा-वचनिका बनाई है।Page Navigation
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