Book Title: Pravachana Sara Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 6
________________ १२२ कुन्दकुन्द-भारता है -- त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंको जानता है । । १५ ।। -- आगे शुद्धात्मस्वरूप जीव सर्वथा स्वाधीन है ऐसा निरूपण करते हैं. तह सो लद्धसहावो, सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो । भूदो सयमेवादा, हवदि सयंभुत्ति णिद्दिट्ठो । । १६ ।। इस प्रकार शुद्धोपयोग द्वारा जिसे आत्मस्वभाव प्राप्त हुआ है ऐसा जीव स्वयं ही सर्वज्ञ तथा समस्त लोकके अधिपतियों द्वारा पूजित होता हुआ स्वयंभू हो जाता है ऐसा कहा गया है ।। १६ ।। आगे शुद्ध आत्मस्वभावकी नित्यता तथा कथंचित् उत्पाद व्यय ध्रौव्यता दिखलाते हैं - भंगविहीणो य भवो, संभवपरिवज्जिदो विणासो हि । विज्जदि तस्सेव पुणो, ठिदिसंभवणाससमवायो । । १७ । । स्वयंभू पदको प्राप्त हुआ है उसीका उत्पाद विनाशरहित है और विनाश उत्पादरहित है अर्थात् उसकी जो शुद्ध दशा प्रकट हुई है उसका कभी नाश नहीं होगा और जो अज्ञान दशाका नाश हुआ है उसका कभी उत्पाद नहीं होगा। इतना होनेपर भी उसके स्थिति उत्पाद और नाशका समवाय रहता है। क्योंकि वस्तु प्रत्येक क्षण उत्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक रहती है । । १७ ।। आगे उत्पादादि तीनों शुद्ध आत्मामें भी होते हैं ऐसा कथन करते हैंउप्पादो य विणासो, विज्जदि सव्वस्स अत्थजादस्स । पज्जाएण दु केणवि, अत्थो' खलु होदि सब्भूदो २ । । १८ ।। निश्चयसे पदार्थसमूहका किसी पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद होता है, किसी पर्यायकी अपेक्षा विनाश होता है और किसी पर्यायकी अपेक्षा वह पदार्थ सद्भूत अर्थात् ध्रौव्यरूप होता है । अँगूठी आदि पर्यायकी अपेक्षा विनाश होता है और पीतता आदि पर्यायकी अपेक्षा वह ध्रौव्यरूप रहता है इसी प्रकार समस्त द्रव्यों में समझना चाहिए । । १८ ।। आगे इंद्रियोंके विना ज्ञान ओर आनंद किस प्रकार होते हैं ? ऐसा संदेह दूर करते हैं। पक्खीणघादिकम्मो, अणंतवरवीरिओ अधिकतेजो । जादो अदिदिओ सो, णाणं सोक्खं च परिणमदि । । १९ । । १. अट्ठो २. संभूदो ज. वृ. । ३. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। ५९ ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसव्रतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ।। ६० ।। -- आप्तमीमांसा समन्तभद्रस्य ।Page Navigation
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