Book Title: Pravachana Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 5
________________ प्रवचनसार विशेष -- द्रव्य और पर्याय परस्पर निरपेक्ष होकर नहीं रह सकते।।१०।। आगे शुभ और शुद्ध परिणामका फल कहते हैं -- धम्मेण परिणदप्पा, अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं, सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ।।११।। धर्म अर्थात् चारित्रगुणरूप जिसका आत्मा परिणत हो रहा है ऐसा जीव यदि शुद्धोपयोगसे सहित है तो निर्वाणसुखको पाता है और यदि शुभोपयोगसे सहित है तो स्वर्गसुखको प्राप्त करता है।।११।। आगे अशुभ परिणामका फल अत्यंत हेय है ऐसा कहते हैं -- असुहोदयेण आदा, कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा, अभिंधुदो भमइ अच्चंतं ।।१२।। अशुभोपयोग परिणमन करनेसे जीव खोटा मनुष्य, तिर्यंच और नारकी होकर हजारों दुःखोंसे दुःखी होता हुआ सदा संसारमें अत्यंत भ्रमण करता रहता है। अशुभोपयोगमें चारित्रका अल्पमात्र भी संबंध नहीं होता इसलिए यह जीव अशुभ कर्मोंका बंध कर दुर्गतियोंमें निरंतर भ्रमण करता रहता है।।१२।। आगे शुद्धोपयोगका फल बतलाते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं -- अइसयमादसमुत्थं, विसयातीदं अणोवममणंतं। अव्वुच्छिण्णं च सुहं, सुद्धवओगप्पसिद्धाणं।।१३।। शुद्धोपयोगसे निष्पन्न अरहंत सिद्ध भगवानको अतिशय रूप -- सबसे अधिक, आत्मासे उत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनंत और अनंतरित सुख प्राप्त होता है।।१३।। आगे शुद्धोपयोगरूप परिणत आत्माका स्वरूप कहते हैं -- सुविदिदपदत्थसुत्तो, संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगोत्ति।।१४।। जिसने जीवाजीवादि पदार्थ और उनके प्रतिपादक शास्त्रको अच्छी तरह जान लिया है, जो संयम और तपसे सहित है, जिसका राग नष्ट हो चुका है और जो सुख-दु:खमें समता परिणाम रखता है ऐसा श्रमण -- मुनि शुद्धोपयोगका धारक कहा गया है।।१४।। आगे शुद्धोपयोगपूर्वक ही शुद्ध आत्माका लाभ होता है ऐसा कहते हैं -- उवओगविसुद्धो जो, विगदावरणंतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा, जादि परं णेयभूदाणं ।।१५।। जो जीव उपयोगसे विशुद्ध है अर्थात् शुद्धोपयोगका धारण करनेवाला है वह स्वयं ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय और मोहरूपी रजको नष्ट करता हुआ ज्ञेयभूत -- समस्त पदार्थोंके पारको प्राप्त होता

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