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119. ओस्ती तृतीयादौ 3/118
श्रेस्ती तृतीयादौ । (:)+ (ती)] [(तृतीया)+ (प्रादी)] त्रः (त्रि) 5/1 ती (ती) 1/1 [(तृतीया)-(प्रादि) 7/1] त्रि से परे तृतीया प्रादि होने पर ती (होता है)। त्रि से परे तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी होने पर ती होता है। तो में उक्त विभक्तिबोधक प्रत्यय लगते हैं। त्रि (पु.)-(ती+मिस्)=तीहि, तीहि, तीहिं (सूत्र 3/124, 3/7)
(तृतीया बहुवचन) (तो+भ्यस्) तित्तो, तीनो, तीउ, तीहिन्तो, तीसुन्तो
(सूत्र 3/124, 3/9) (पंचमी बहुवचन) (ती+भ्यस्, आम्)=तिण्ह (सूत्र 3/123) (चतुर्थी, षष्ठी बहुवचन)
(ती+सुप्)=तीसु (सूत्र 4/448) (सप्तमी बहुवचन) 120. द्वेर्दो वे 3/119
द्वी वे [(द्वेः)+ (दो)] Tः (द्वि) 6/1 दो (दो) 1/1 वे (वे) 1/1 द्वि के स्थान पर दो, वे (होते हैं)। द्वि (दो) के स्थान पर तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी विभक्ति में दो, वे होते हैं फिर इनमें उक्त विभक्तियों के बहुवचन बोधक प्रत्यय लगते हैं । द्वि- (दो,वे+भिस्)= दोहि, दोहिं, दोहिं, वेहि, वेहि, वेहिं (सूत्र 3/124,3/7)
. (तृतीया बहुवचन) (दो, वे+भ्यस्)=दुत्तो, दोश्रो, दोउ, दोहितो, दोसुंतो, वित्तो, वेप्रो, वेउ,
वेहितो, वेसुंतो (सूत्र 3/124, 3/9) (पंचमी बहुवचन) (दो, वे + आम्)=दोण्ह, वेण्ह, (सूत्र 3/123)
दोण्ह, वेण्हं (सूत्र 1/27) (षष्ठी बहुवचन) (दो, वे+सु)=दोसु, वेसु (सूत्र 4/448) (सप्तमी बहुवचन)
प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ ।
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