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प्रकारान्त पुल्लिग-देव
प्रथमा
द्वितीया
तृतीया
चतुर्थी
पंचमी
एकवचन
बहुवचन देवो (3/2), देवे
देवा (3/4, 3/12) देवं (3/5)
देवा (3/4, 3/12),
देवे (3/4, 3/14) देवेण (3/6, 3/1 4), देवेहि, देवे हिं, देवेहिँ (3/7, 3/15) देवेणं (1/27) देवाय (3/132)
देवाण (3/131, 3/6, 3/12), देवस्स (3/131, 3/10) देवाण2 (1/27) देवत्तो, देवा मो, देवाउ, देवाहि, देवत्तो, देवाओ, देवाउ (3/9, देवाहितो, देवा (3/8, 3/12, 3/12, 1/84), देवाहि, देवाहितो, 1/84),
देवा मतो (3/9, 3/13), देवेहि, देवादो, देवादु (318) देहितो, देवे सुतो (3/9, 3/15),
देवादो, देवादु (3/9) देवस्स (3/10)
देवाण (3/6, 3/12),
देवाणं (1/27) देवे, देवम्मि (3/11), देवेसु (3/15), देवेसुं2 (1/27) देवम्हि, देवसि हे देव, हे देवा, हे देवो हे देवा (4/448) (3/38), हे देवे
षष्ठी
सप्तमी
सम्बोधन
नोट-1. अर्द्धमागधी साहित्य में यह प्रयोग मिलता है । प्राकृत भाषामों का
व्याकरण, पिशल, पृष्ठ 615 । 2. सूत्र संख्या 1/27 के अनुसार तृतीया विभक्ति के एकवचन में व षष्ठी
विभक्ति के बहुवचन में 'ण' और 'णं' दोनों प्रत्ययों का प्रयोग होता है।
इसी प्रकार सप्तमी बहुवचन में 'सु' और 'सु' प्रत्ययों का प्रयोग होता है। 3. सूत्र संख्या 1/84 के अनुसार दीर्घ स्वर के आगे यदि संयुक्ताक्षर हो तो
उस दीर्घ स्वर का ह्रस्व हो जाता है- देवातो→देवत्तो। 4. शौरसेनी साहित्य में 'म्हि' प्रत्यय का प्रयोग मिलता है।
प्रौढ प्राकृत रचना सौरम ]
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