Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 7
________________ प्रस्तावना. तावंत एव खलुतेप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रुप मस्ति ॥१॥ त्रण नुवनने विषे अन्तिीय सौंदर्यतावाला हे प्रत्नु ! जे शांत रसना लावनी गयावाला परमाणुए करीने तमाएं शरीर निमर्माण थयेटुंबे, ते परमाणु पण आ जगतने विषे तमारा पुरतांज हता, अर्थात् ते राग द्वेषनी शांततारुप परमाणुढं जगतमां तेटलाज बे. अने तेज कारणने लश्ने आजगतने विषे तमारा सरखं बीजुं को रूप नथी. . __सारांश ए ने के आत्माने परमशांतरस प्राप्त करवामां श्री तीर्थकर जगवंतनी प्रतिमा अति प्रबल निमित्त कारण ने, जेथी आत्मा शांतरसमय प्रतिमानुं ध्येय स्वरूपे अवलंबन करी, ध्यानना प्रकर्ष स्वरूपे पहोंचतां, पूर्ण ध्याता थतां, पोते परम शांतता प्राप्त करे ; अने ज्यारे परम शांतता प्राप्त थाय ने त्यारेज दमा, मार्दव, आर्जव अने संतोषादि आत्माना सत्यगुणो श्रात्माने आत्मानुं निरावरण याने शुद्धस्वरूप प्राप्त कराववामां समर्थ थाय बे.. ___ हवे वांचनारने सेहेज समजाशेके ज्यारे आत्मानेपरम शांतता प्राप्त श्रतांज मुक्ति याने आत्मस्वरूप, अव्याबाध सुख प्राप्त श्राय , तो जेटले जेटले अंशे, तीर्थकर जगवंतनी प्रतिमान ध्यान करतां करतां शांतता प्राप्त थती जती हशे, तेटले तेटले अंशे सत्य सुखनो लाल यतो जाय, तेमां शुं असत्य ? अर्थात् तेमां कांपण असत्य नथी. हवे वर्तमानमां जिनमंदिरमां जिनप्रतिमाना नक्ति पूजना

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