Book Title: Prakrit evam Jainvidya Shodh Sandarbha
Author(s): Kapurchand Jain
Publisher: Kailashchandra Jain Smruti Nyas

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Page 19
________________ प्राकृत एवं जैनविद्या : शोध-सन्दर्भ किया है। इतना ही नहीं उन्होंने अपने शोध का विषय भी जैन दर्शन को बनाया। जैन विद्याओं में अनुसंधान और साहित्य प्रकाशन हेतु वे सदैव प्रयत्नशील रहे हैं। इस पुस्तक के प्रकाशनार्थ अर्थ सहयोग प्रदान कर डा० शाह ने जो उदारता दिखाई है उसके लिए विद्वज्जगत उनका सदैव आभारी रहेगा। डा० शाह से हमें मिलाने में महत्वपूर्ण कड़ी का काम जैन केन्द्र, रीवां के निदेशक डा० नन्द लाल जैन ने किया है। इतना ही नहीं उन्होंने इस पुस्तक का 'विदेशों में जैन विद्या शोध' (Jainological Researches Abroad) अध्याय लिखकर इसकी उपयोगिता को द्विगुणित कर दिया है। उनके अनेक निर्देश और सुझाव हमें मिले हैं, जिनका यथाशक्य उपयोग यथास्थान हमने किया है, उन्हें विनम्र प्रणति। आईआई०टी०, रुड़की के प्रोफेसर डा० अशोक जैन विदेशों में जैन विद्याओं के प्रचार-प्रसार हेतु कटिबद्ध हैं, उन्होंने पुस्तक की भूमिका लिखकर महत् उपकार किया है। डा० एस० एम० कंसल, प्राचार्य, श्री कुन्दकुन्द जैन पी० जी० कालेज, खतौली, श्री सुरेश जैन, आई०ए०एस० भोपाल, डा० शीतल चंद जैन, जयपुर, डा० रमेश चंद जैन, बिजनौर, डा० प्रेमसुमन जैन, उदयपुर, डा० कमलेश कुमार, वाराणसी, डा० आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, लाडनूं, डा० रामजी राय, आरा, डा० शशिकान्त जैन, लखनऊ, ने समय-समय पर पत्रों/टेलीफोन/चर्चा के माध्यम से सहयोग किया है सभी को हमारा विनम्र प्रणाम । आशा है भविष्य में भी ऐसा ही सहयोग मिलता रहेगा। सुप्रसिद्ध पत्र "जैन संदेश' तथा 'संस्कार सागर की सहसम्पादिका सह धर्मिणी डा० (श्रीमती) ज्योति जैन ने न केवल गृहचिन्ताओं से मुक्त रखा अपितु सामग्री संकलन/लेखन में यथा समय सहयोग दिया है उनका हार्दिक आभार । अनुक्रमणिका तैयार करने में छात्रा कु० शैली कंसल एवं हमारे पुत्र चि० कार्तिक एवं अनिकेत जैन ने सहयोग किया है तीनों अपने प्रगति पथ पर अग्रसर हों ऐसी मंगल भावना के साथ शुभाषीः । श्री गौरव जैन, मेरठ और श्री मनोहर लाल जैन, दिल्ली ने पूरी आस्था और लगन के साथ अक्षर संयोजन तथा मुद्रण का कार्य किया है, उनके प्रति आभारी हैं। प्रस्तुत शोध-सन्दर्भ में जो भी उपयोगी फूल हैं वे आप धर्मानुरागी महानुभावों के आशीर्वाद/प्रेरणा/शुभाषीः/शुभकामना/ सद्भावना के फल हैं और जो अनुपयोगी त्रुटिरूप शूल हैं, वे हमारे अपने हैं। हमारे शूल हमें लौटायेंगे ऐसी भावना के साथ। (डा० कपूरचन्द जैन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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