Book Title: Prakaranmala
Author(s): Harishankar Kalidas Vadhvanwala
Publisher: Bhogilal Tarachand Shah

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Page 204
________________ ( १ ) सुखी तुं, डुखी तुं, दत्यादि लक्षण वाली ) अंतर्वाणी ने सर्व प्रकारे यजी देवी. ए प्रमाणे बहिरात्माने थाने अंतरात्माने त्यजी देवा रूप योग संपथी परमात्मानां स्वरूपने प्रकाश करनारो बे. यन्मया दृश्यते रूपं, तन्न जानाति सर्वथा ॥ जानन्न प्रश्यते रूपं, ततः केन ब्रवीम्यदम् ॥ १८ ॥ शब्दार्थ:- हुं जे स्वरूपने जोवुं हुं ते मने सर्व प्रकारे जाण तुं नथी अने जेने हुं जाएं हुं ते स्त्ररूप देखातुं नथी तो पढी हुं कोनी साधे बोलुं ? ॥ १८ ॥ यत्परैः प्रतिपाद्योऽदं यतरान् प्रतिपादये ॥ उन्मत्तचेष्टितं तन्मे, यदहं निर्विकल्पकः ॥ १०५ ॥ शब्दार्थः-- उपाध्यायादिकथी जे हुं शिक्षण कराउं बुंठाथवा हुं शिष्यादिकने जे शिक्षण करूं कुं. ते सर्व म्हारुं जन्मत्त चेष्टित कारण, हुं निर्विकल्प . ॥ १० ॥ यद्ग्राह्यं न गृह्णाति, गृहीतं नापि मुंचति ॥ जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥२०॥ शब्दार्थ - जे शुद्ध एवं श्रात्मस्वरूप, नदि ग्रहण करवा योग्य एव कर्मना उदय निमित्त क्रोधादिस्वरूपने गृहातुं नथी अने गृहण करेला अनंतज्ञानादि स्वरूपने त्यजी देतुं नथी. वली द्रव्य पर्यायादिके करीने सर्व चेतन तथा अचेतनने जा बे, ते हुं पोताथीज जागवा योग्य खात्मा बुं. ॥ २० ॥ उत्पन्नपुरुषभ्रांतेः स्थाणौ यद्वचेष्टितम् ॥ तन्मे चेष्ठितं पूर्व, देहादिष्वात्मविभ्रमात् ॥ २१ ॥ शब्दार्थ:-- यांनलामां उत्पन्न थयेली पुरुष जांतिने लीघे जवी सेते विविध उपकारादि बाह्य चेष्टा कराय वे तेवीज रीते

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