Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 191
________________ श्री समयसारनाटक. ७६१ नौ दशा न लहिये; तातें जीव अचल अबाधित अपंड एक, एसो पद साधिके समाधि सुख गहिये ॥ ६० ॥ अर्थः- कोई नयी अस्तिरूप बे, कोई नयथी नास्तिरूप बे. कोई नयथी अनेक, कोई नयी एक, कोई नयथी स्थिररूप, कोई नयी अस्थिररूप, इत्यादि नाना प्र कारना स्वरूपथी जीव कहीए. यहीं एक नय जे स्वरूप साधे बे, त्यां ते नयनो प्रति पक्षी के उलटी रीते बीजो नय देखाय बे, तेतो पेला नयथी विपरीतपणुं साधे बे, तेथी जो एकांतनयपपुंज ग्रहीए अने ते उपर बीजो नय न देखामीये तो वादविवाद थई जाय. तेथी नय भेद करणीथी कुविकल्पना तरंग उठेते तरंगथी चेतन स्थिर न थाय, छाने चंचलतापणुं वधे तेथी अनुभव दशाग्रह । न जाय. माटे नयपक्ष तजीने अनुवन्यास कारणे जीव द्रव्य अचल बे, अबाधित बे, श्रखं बे, एक बे, एवा स्वरूपं स्थानक साधिने सुख ग्रहण करिये ॥ ६० ॥ हवे द्रव्य, क्षेत्र, काल, जावे करीने श्रात्मानुं श्रखंमितपणुं कहे :अथ द्रव्य, क्षेत्र, काल, जाव कथन: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जेसे एक पाकी बफल ताके चारि त्र्यंस, रसजाली गुठली बालक जब मानिये; यों तो न बने पे एसे बने जेसें दहे फल, रूप, रस, गंध, फास, पंड प्रवानिये; तेसे एक जीवकों दरव, पेत्र, काल, जाव, स जेद करि जिन्न जिन्न न वषानि ये; दर्व रूप, पेतरूप, कालरूप, जावरूप, चारों रूप अलख यखं सत्ता मानिये ॥ ६१ ॥ श्रर्थः- शिष्य कहे. हे ! स्वामी ! द्रव्य, क्षेत्र, काल, जावरूप वस्तुना चार अंश तमे कहो बो, त्यां एवं दृष्टांत श्राप के, एक थांबफल बे तेना रस, जाली एटले रेसो, गोली ने बाल ए चार अंश बे, तेमज वस्तुना द्रव्य, क्षेत्र, काल, जाव ए अंश होय के न होय? हवे गुरु कहे बे, हे ! शिष्य ! आहीं तुं अंशके खंग समज्यो तेथी ए दृष्टांत दीधुं. तो बने नही पण ही अखंडपणामां चार अंश लाववा तेनुं दृष्टांत एबे, के तेज व फल बे, तेमां रूप, रस, गंध ने स्पर्श ए चारे अखंडपणे प्रमाण करिए, ए चार रस बे, तेम एक जीवनुं द्रव्य, क्षेत्र, काल, जावरूप अंशनेदे करीने रस जाली गोवलीने बाल ए खंड खंड वखाणीये नहीं. ही जे साध्यरूप श्रात्मा सत्ता बे, ते द्रव्यथी अखंडितपणे, श्रात्मा द्रव्यरूप बे, घने देत्रथी श्रखंमपणे प्रसंख्यात प्रदेशाश्रवगादपणे बे, कालथी अखंड त्रिकाल वर्त्तिले, जावथी श्रखं ज्ञायक जावपणे बे; एम जीवना चार अंश श्रखंरुपणे मानीये ॥ ६१ ॥ ९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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