Book Title: Prakarana Ratnakar Part 1
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 223
________________ श्री समयसारनाटक. उए३ साता नांहि साता उदे पाश्ये; मन वच कायसों अतीत जयो जहां जीव जाको जस गीत जग जीत रूप गाश्ये; जामे कर्म प्रकृतिकी सत्ता जागी जिनकीसी, अंतकाल देसममें सकल खिपाइये; जाकी थिति पंच लघु अदर प्रवान सोश, चौदहो अयोगी गुन थाना ठहराश्ये. ॥ ३ ॥ अर्थः-जे गुणस्थानमां कोई जीवने अशाता वेदनीयनो उदय अने शाता वेद नीयनो उदय नथी, एटले शाता वेदनीय सत्तारूप ,अने कोश्ने शातावेदनीयनो उ दय बे, अने अशाता पुःखरूप उदयमां नथी, एटले सत्तामा बे. अने ज्यां शैलेसी करण करीने मनोयोग, वचनयोग, काया योगथी जीव अतीत एटले रहित थयो. जेना जशनु वर्णन जगत्ने जीतवा रूप गाइए बीए एटलुं ने श्रने जेमां जोगी जन केसी के० सजोगी केवलीनी रीते कर्म प्रकृतिनी सत्ता रहिजे. ते अंतकालमां अनंत वे समयमां समस्त खपावे. अने जे गुणस्थानकनी स्थिति पंच लघु अक्षर अ, इ, ज, क ल ए श्रदर कहेतां जेटलो काल प्रमाण होय एटलो काल प्रमाण स्थिति तेज चौद, अयोगी ठेरावीए. ॥ ३॥ ॥ इति श्री चतुर्दश गुणस्थानक अधिकार बालाबोधरूप समाप्तः ॥ ॥ दोहरा ॥-चौदहगुनयानक दशा, जगवासी जियनूल; आश्रव संवर नाव के, बंध मोदके मूल. ॥४॥ अर्थः-जगत्वासी जीव अशुद्ध थको नूलमां पड्यो बेतेनी ए चौद गुणस्थानकथी चौद दशा थाय . श्रांही तत्त्व दृष्टिमा जोतां जे आश्रव संवर नाव तेज बंध मो दना मूल बे; एटले आश्रव बंधनुं मूल अने संवर मोदनुं मूल जे. हवे आश्रव सं वरनी जुदी जूदी अवस्था कहे. अथ थाश्रव संवर व्यवस्था कथन. ॥ ४ ॥ ॥ चोपाईः ॥-श्राश्रव संवर परनति जोलों; जगत निवासि चेतना तोलों; श्राव संबर विधि विवहारा; दोऊ नवपथ शिवपथ धारा. ॥५॥ आश्रव रूप बंध उतपाता, संवर ज्ञान मोषपद दाता;जा संवरसों श्राश्रव बीजे, ताको नमस्कार अब कीजे.॥६॥ अर्थः-ज्यां सुधी श्राश्रव संवरनुं परिणाम परिणमे बे, त्यांसुधी चेतन रूप ईश्वर जगत् निवासी थई रह्यो. श्रांही श्राश्रवनो विधि ले ते व्यवहारमा बे. अने संवरनो विधिले ते पण व्यहारमा . ए उन्नौ के0 बे व्यवहार पंथ ते संसार मार्गनी धारा थने मोद मार्गनी धारा पण बे. ॥ ५ ॥ संसारमा जे बंधरूप उत्पात , ते तो था श्रवरूप जे. अने जे मोदपदनो दाता ज्ञान लेते संवर रूप बे. जे संवरथी श्राश्रव दय थयो होय तेने हवे नमस्कार करीए बीए. ॥ ६ ॥ १०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 221 222 223 224 225 226 227 228